उत्सव के माहौल के साथ ही बाजारों में भी बहार आ जाता है। यह बहार आज देखने को मिल रहा है, लेकिन यह कोई नई बात या आधुनिक युग की देन नहीं है। सच कहा जाय, तो अपने अविकसित अवस्था में भी बाजार भारत में उत्सव और त्यौहारों का मुहताज हुआ करता था। यदि हम भारत के बाजार का इतिहास देखें, तो बड़े बड़े बाजार पर्व और त्यौहारों के दौरान ही लगा करते थे। यह अकारण नहीं कि ये पर्व त्यौहार हमारे कृषि प्रधान समाज में फसलों के कटने के बाद ही ज्यादातर आते हैं, जब किसानों व समाज के अन्य लोगों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन-धान्य हुआ करते हैं।
अब तो बाजार ने स्थाई रूप ले लिया है और अस्थाई बाजार की संख्या घटती जा रही है, लेकिन पहले के सारे के सारे बाजार अस्थाई हुआ करते थे और वे पर्व त्यौहारों के समय ही अस्तित्व में आया करते थे और उत्सव का न केवल कारण साधन बनते थे, बल्कि वे अपने आप में साध्य हुआ करते थे। आज भी शौपिंग अपने आपमें एक उत्सव है और पहले भी मेलों में हिस्सा लेना और उनका हिस्सा होना कोई कम उत्सवकारी नहीं हुआ करता था।
पर्व त्यौहार पुराने हैं, लेकिन आधुनिकता ने बाजारों के रूप और रंग को बदल डाला है, लेकिन उत्सव का जज्बा वही पुराना है, इसलिए शौपिंग के उत्साह में कोई कमी नहीं। अब भले बाजार आॅनलाइन रूप अख्तियार करे या आॅफलाइन, बाजार टेंटो में लगे या आलीशान माॅलों में, लेकिन इतना तय है कि बाजार में ग्राहक बढ़ेंगे और बिक्री भी बढ़ेगी। और यही हो भी रहा है।
आज के युग को उपभोक्तावाद का युग कहा जाता है। उपभोक्ता तो हमेशा रहे है। जब बाजार नहीं था, उपभोक्ता तब भी थे। सच कहा जाय, तो बाजार अस्तित्व में ही उपभोक्ताओं के कारण ही आया, लेकिन आज के उपभोक्ता पहले के उपभोक्ताओं से अलग हैं। इसका कारण यह है कि पहले उपभोग की वस्तुएं इतनी नहीं थीं। उपभोग की वस्तुओं की बहुलता ने उपभोक्ता को राजा से सम्राट बना दिया है। पिछली शताब्दी में कहा जाता था कि बाजार का राजा उपभोक्ता होता है, लेकिन अब हम कह सकते हैं कि उपभोक्ता बाजार का सम्राट होता है।
हमारे सभी पर्व त्यौहार हमारी कृषिकालीन संस्कृति की उपज हैं, पर अब हम कृषि संस्कृति को पीछे छोड़कर एक शहरी आधुनिकतावादी संस्कृति के युग मंे पहुंच गए हैं। यह नई संस्कृति उपभोक्तावादी संस्कृति है। पहले बाजार कृषि संस्कृति का एक हिस्सा था, लेकिन अब हमारी कृषि संस्कृति उपभोक्तावादी बाजार का एक हिस्सा बनकर रह गई है। और यह बााजर उस समय पूरे सबाब पर रहता है, जब हमारे देश का मूड पर्व त्यौहारों के कारण उत्सववादी हो जाती है।
हमारे देश में वित्तीय वर्ष अप्रैल महीने से शुरू होते है और अगले साल के मार्च महीने में समाप्त हो जाता है। जब कैलेंडर वाला साल जनवरी से शुरू होता है, तो फिर देश का वित्तीय वर्ष अप्रैल से क्यों शुरू होता है? दिमाग में यह सवाल उठना स्वाभाविक है। तो इसका जवाब यह है कि यह सब त्यौहारों से संबंधित है। अप्रैल से वित्त वर्ष शुरू होने की परंपरा अंग्रेजों ने हमारे देश में शुरू की, लेकिन वैसा करते समय उन्होंने भी हमारे त्यौहार पर्वाें का ख्याल रखा, क्योंकि हमारे बाजार की गतिशीलता त्यौहारों पर ही निर्भर है। त्यौहारों की दृष्टि से हमारे देश के छह महीने कमजोर होते हैं, तो शेष छह महीने बहुत ही मजबूत और जो छह मजबूत महीने होते हैं, उसे हम अपनी अर्थव्यवस्था का व्यस्त (बिजी) सीजन कहते हैं। कमजोर छह महीनों को हम सुस्त (लीन) सीजन कहते हैं। तो यह व्यस्त सीजन अक्टृबर में ही शुरू हो गया है और अगले साल मार्च महीने तक चलेगा। संयोग से दो अक्टूबर को गांधी जयंती के रूप में एक और त्यौहार पिछले 60- 65 सालों से हमारे देश में शुरू हो गया है। दो अक्टूबर को भारत सरकार का खादी ग्रामोद्योग त्यौहारों का समय शुरू होने की घोषणा कर देता है और अपने कुछ उत्पादों पर डिस्काउंट देना शुरू कर देता है।
त्यौहारों का उत्सव हो और उत्सव को आधार प्रदान करने वाले बाजारों की रौनक न बढ़े, यह हो नहीं सकता। रौनक तो अपने आप बढ़ती है, लेकिन अब बाजार भी इसे बढ़ाने में अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। पहले कहा जाता था कि जो कुछ भी बाजार में आएगा, उसकी मांग अपने आप पैदा हो जाएगी और खरीददार भी सामने आ जाएगा, लेकिन अब बाजार पहले मांग पैदा करता है और फिर वह सामान लाता है। जाहिर है, इसके लिए बाजार अनेक हथकंडे अपनाता है। अपने उत्पादों का प्रचार प्रसार करता है। इस समय विज्ञापनों पर किए जाने वाले खर्च बढ़ जाते हैं। कंपनियों को अपने उत्पाद बेचने के लिए दूसरी कंपनियों से न केवल प्रतिस्पर्धा करनी होती है, बल्कि नये उत्पादों को लांच कर उसके लिए नई मांग भी पैदा करती होती है। संचार क्रांति के बाद प्रचार और विज्ञापनों के साधनों की संख्या भी बढ़ गई है, जाहिर है पर्व त्यौहार उन साधनों के लिए भी बहार बनकर आते हैं।
बाजार अपने आपको बढ़ाने के लिए डिस्काउंट और सेल का सहारा लेता रहा है। यह तकनीक उस समय सबसे ज्यादा अपनाई जाती है, जब बाजार में पहले से ही मांग बढ़ी हुई हो और खासकर जब ग्राहकों की जेबें भरी हुई हों। व्यक्ति बाजार के लिए उपभोक्ता तभी कहलाता है, जब उसके पास क्रयशक्ति हो और बाजार को पता होता है कि लोग खरीददारी के लिए पर्व त्यौहारों का इंतजार करते हैं और उस समय उनकी क्रयशक्ति भी अन्य समय की अपेक्षा ज्यादा होती है। जाहिर है, तरह तरह की स्कीम लाकर या कहें तो फेस्टिवल बोनांजा से बाजार उपभोक्ताओं से उनकी क्रयशक्ति से ज्यादा खर्च करा देता है। ज्यादा खर्च कराने का यह दौर शुरू हो गया है। (संवाद)
बाजारों के लिए बहार बनकर आते हैं त्यौहार
इस बार का माहौल अलग नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-10-20 13:17
त्यौहारों का मौसम शुरू हो गया है। जन्माष्टमी और गणेश चतुर्थी के बाद बरसात का मौसम समाप्त होने के साथ ही वातावरण में एक ऐसा बदलाव आता है, जिसका हमारे देश के लोगों पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मौसम में आया यह बदलाव मूड को उत्सववादी बना देता है। वैसे भारत में उत्सवों की कमी नहीं, लेकिन पितृपक्ष की समाप्ति के बाद उत्सव का जो माहौल बनता है, उसकी बराबरी और कोई नहीं कर सकता।