न्यायपालिका द्वारा अपनी स्वायत्तता के इजहार का ताजा मामला राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करना है। इस आयोग की स्थापना का कानून केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकर ने बनाया था। उस कानून के द्वारा कार्यपालिका की न्यायिक नियुक्तियों में दखल का प्रावधान था। सुप्रीम कोर्ट के एक बंेच ने 4-1 से उस कानून को खारिज कर दिया। इस तरह से कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका को नियंत्रित करने का एक और प्रयास विफल कर दिया गया।
1993 तक जजों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती थी। नियुक्ति के पहले न्यायपालिका से सलाह ली जाती थी। जब कार्यपालिका और न्यायपालिका से संबंध अच्छे होते थे, तो न्यायपालिका की सलाह को गंभीरता से लिया जाता था और उनके साथ सहमति बनाकर ही नियुक्तियां की जाती थी। लेकिन अधिकांश दफे न्यायपालिका की सलाह को मानना जरूरी नहीं होता था। अनेक बार कार्यपालिका के लोग अपनी पसंदीदा लोगों को जज बनाकर बैठा देते थे।
1993 में जब केन्द्र में नरसिंह राव की अल्पसंख्यक सरकार थी, तो न्यायपालिका ने अपने आपको जजों की नियुक्ति की शक्ति से सुसज्जित कर लिया। जस्टिस जे एस वर्मा के एक बेंच ने आदेश पारित कर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ जजों व हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की सिफारिशों को नियुक्ति के लिए अपरिहार्य बना दिया।
जब कभी भी कोई नियुक्ति होनी हो, तो कार्यपालिका को उसी व्यक्ति से पद भरा जाना जरूरी हो गया, जिसकी सिफारिश न्यायपालिका की ओर से आई हो। अपवाद स्वरूप किसी ठोस आधार पर ही कार्यपालिका न्यायपालिका की सिफारिश पर सवाल खड़ा कर सकती है। यदि न्यायपालिका ने उस सवाल को नजरअंदाज कर दिया, यानी दोनों मे सहमति नहीं बनी, तो अंततः न्यायपालिका की सिफारिश को मानना कार्यपालिका की बाध्यता थी।
भारतीय न्यायपालिका ने संविधान की अपने तरीके से व्याख्या कर एक ऐसा आभिजात्य वर्ग तैयार कर लिया, जिसके पास खुद को नियुक्ति करने का अधिकार था। उसमें जो सुपर आभिजात्य वर्ग था, उसे ही काॅलेजियम कहा जाता है।
1998 में वाजपेयी की सरकार के समय राष्ट्रपति द्वारा पूछे जाने पर काॅलेजियम को पारिभाषित किया गया।
इस व्यवस्था के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि जज किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हुआ न हों। यूपीए सरकार के कार्यकाल के अंतिम महीनों में काॅलेजियम व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिशें शुरू हो गईं। उसने संसद में एक विधेयक पेश किया, जिसके तहत एक राष्ट्रीय न्यायपालिका नियुक्ति आयोग के गठन की व्यवस्था थी। उसमें तीन वरिष्ठ जजों को रखा जाना था। उनके अलावा दो अन्य विशिष्ट लोगों को रखा जाना था। उन पांचों के अलावा कानून मंत्री को भी उसका हिस्सा होना था। लेकिन यूपीए उस विधेयक को संसद में पास नहीं करवा सका।
सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने उस विधेयक को दुबारा पास करवाने की कोशिश की और उसमें वह सफल हो गई। उस विधेयक को 20 राज्यो की विधानसभाओं ने भी स्वीकृति दे दी। इससे लगने लगा कि काॅलेजियम व्यवस्था अब इतिहास बन चुकी है।
उस कानून के खिलाफ याचिका दायर की गई। अधिकांश लोगों को लग रहा था कि संविधान के संशोधन से बना वह आयोग एक हकीकत बन जाएगा और सुप्रीम कोर्ट उसे स्वीकार कर लेगी। इसका एक कारण यह था कि वह संशोधन लगभग सर्वस्वीकृति से संसद से पास किया गया था और 20 राज्यों की विधानसभाओं की भी उसे स्वीकृति मिल गई थी। लेकिन जब उस पर फैसला आया, तो वह संशोधन खारिज हो गया।(संवाद)
भारत
न्यायिक स्वायत्ता की जीत हुई
काॅलेजियम व्यवस्था को दुरुस्त किए जाने की जरूरत
हरिहर स्वरूप - 2015-10-27 10:53
कार्यपालिका ने हमेशा कोशिश की कि वह न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करे, लेकिन वह कभी सफल नहीं हुई। सच तो यह है कि न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति में अपनी ताकत बढ़ाकर नियुक्ति के मामले में राजनीतिज्ञों की भूमिका को ही समाप्त कर दिया। इस तरह से न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता सुनिश्चित कर ली। जजों का स्थानांतरण भी न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र का हिस्सा हो गया।