पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को ओबीसी का वोट नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होने के कारण मिला, लेकिन लगता है कि पार्टी विश्लेषकों ने बिहार में अपनी उस जीत को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नतीजा मान लिया था और नरेन्द्र मोदी के ओबीसी स्टैटस को बिहार की जीत का कारण मानने से इनकार कर दिया था। इसके कारण उसने बिहार की रणनीति बनाने में भारी भूल कर दी। बिहार में जीत हासिल करने के लिए उसे किसी ओबीसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करना चाहिए था, लेकिन उसने किसी को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश ही नहीं किया और नरेन्द्र मोदी के भरोसे ही चुनाव जीतने की रणनीति बना डाली।
इसका लालू और नीतीश के समर्थकों ने भरपूर फायदा उठाया और दलितों और पिछड़ों मंे इस बात का खूब प्रचार किया कि भाजपा यदि बहुमत में आई, तो कोई फाॅरवर्ड मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। बिहार के दलित और पिछड़े जानते हैं कि फाॅरवर्ड मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी स्थिति दयनीय हो सकती है। इसके कारण उनका मूड भाजपा के खिलाफ बनने लगा।
मुख्यमंत्री उम्मीदवार नहीं पेश करने के बाद दूसरा गलत काम भाजपा ने टिकट बांटने में किया। बिहार में अगड़ी जातियों की जनसंख्या सिर्फ 13 फीसदी है, लेकिन उसने 50 फीसदी से भी ज्यादा उम्मीदवार अगड़ी जातियांे से ही उतार दिए। उसकी तीन सहयोगी पार्टियों ने भी यही किया। इस तरह से भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का आधा से ज्यादा उम्मीदवार अगड़ी जातियों का था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने कितने अगड़े उम्मीदवार दिए, इसका सही सही आंकड़ा पाना थोड़ा कठिन है, लेकिन इस बात का खूब प्रचार हुआ कि उसके 122 से ज्यादा उम्मीदवार अगड़ी जातियांे से हैं। कोई कोई तो यह भी कहता कि उसके 143 उम्मीदवार अगड़ी जातियांे से हैं। गौरतलब है कि बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें है और जिनमे 17 फीसदी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित हैं।
लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने भारी संख्या में अगड़ी जातियों के उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री का उम्मीदवार एक ओबीसी था और इसके कारण ओबीसी के वोट अगड़ी जातियों को मिल गए। यदि बिहार में किसी ओबीसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जाता, तब भी जीतने लायक ओबीसी वोट भाजपा के अगड़े उम्मीदवारों को जा सकते थे, लेकिन यहां न तो ओबीसी मुख्यमंत्री उम्मीदवार थे और न ही पर्याप्त संख्या में ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिए गए थे। जाहिर है, फाॅरवर्ड राज की आशंका व्याप्त हो गई, जिसके कारण भाजपा के खिलाफ ओबीसी और दलितों का मूड मजबूत होता चला गया और लालू यादव ने घोषणा कर दी कि बिहार का चुनाव बैकवर्ड और फाॅरवर्ड के बीच में है।
अपनी बैकवर्ड- फाॅरवर्ड की लड़ाई को लालू जाति जनगणना को मुद्दा बनाकर लड़ रहे थे। लोकसभा में दबाव बनाकर उन्होंने जाति जनगणना करवाने के लिए केन्द्र सरकार को बाध्य कर दिया था, लेकिन वर्तमान सरकार ने उस आंकड़े को सार्वजनिक करने से पहले इनकार कर दिया था और बाद में टाल मटोल करने लग गई। लेकिन बैकवड फाॅरवर्ड की लड़ाई लड़ रहे लालू को ब्रह्मास्त्र थमाने का काम किया मोहन भागवत के उस बयान ने, जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की मांग उठा दी थी। यदि मायावती आरक्षण की समीक्षा की मांग करे, तो उसका मतलब होता है, आरक्षण नीति में अपनाई जा रही गड़बड़ियों की जांच करना, लेकिन यदि आरएसएस जैसा संगठन, जिसकी अतीत आरक्षण विरोध का रहा हो, यदि इसकी समीक्षा की मांग करता है, तो इसे आरक्षण समर्थक समुदाय आरक्षण पर हमला मानता है।
लालू यादव ने मोहन भागवत के उस बयान को हाथों हाथ लपक लिया। उन्हें अपना जाति युद्ध तेज करने के लिए जाति जनगणना से भी बड़ा हथियार मिल चुका था। जाति जनगणना का आंकड़ा सामने नहीं आना सिर्फ ओबीसी की चिंता का कारण है, क्योंकि दलितों और आदिवासियों की जातियों की जनगणना को पहले से ही होती रही है और उनके आंकड़े भी सामने आते रहे हैं, लेकिन आरक्षण का मामला ओबीसी के साथ साथ दलितों के लिए भी संवेदनशील है। आरक्षण की समीक्षा वाले बयान ने लालू को दलितों के बीच भी अगड़े पिछड़े की लड़ाई ले जाने में मदद कर दी।
मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश नहीं करने और अगड़ों को भारी संख्या मंे टिकट देने के कारण भाजपा और उसके सहयोगी दलों के खिलाफ बहुसंख्यक ओबीसी का मूड तो बन ही रहा था, आरक्षण पर भागवत के उस बयान और उस बयान पर भाजपा नेताओं द्वारा दी जाने वाली कमजोर सफाई ने आग में घी का काम किया और बिहार का मूड लगभग पूरी तरह भाजपा के खिलाफ हो गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद घोषणा करके लोगों को आरक्षण के बारे में आश्वस्त कर सकते थे, लेकिन इस डर से उन्होंने इस मसले पर पहले चुप्पी साधे रखी कि इससे उनका अगड़ा समर्थक नाराज हो जाएगा।
पहले अमित शाह और बहुत बाद में नरेन्द्र मोदी ने आरक्षण के साथ छेड़छाड़ नहीं करने वाला बयान दिया, लेकिन इसके कारण अगड़े समर्थकों मंे निराशा छाई और उन्होंने मतदान में सुस्ती दिखा दी। उन्होंने वोट तो भाजपा और सहयोगी दलों को ही दिया, लेकिन बहुत कम संख्या में वोट देने के लिए निकले।
प्रचार अभियान के दौरान ही फरीदाबाद के एक दलित परिवार में दो बच्चों के जलकर मर जाने की घटना के बाद केन्द्रीय मंत्री वी के सिंह ने यह बयान दे दिया कि यदि कोई किसी कुत्ते को पत्थर मारे, तो उसमें राज्य सरकार क्या कर सकती है। लालू के जाति युद्ध में यह भी भाजपा के खिलाफ गया। यानी भारतीय जनता पार्टी जाति के मसले पर एक के बाद एक गलतियां करती चली गईं और उसके कारण उसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। (संवाद)
बिहार चुनाव के नतीजे: जाति फैक्टर की उपेक्षा भाजपा को पड़ी भारी
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-11-10 02:43
बिहार चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के लिए सिर्फ और सिर्फ जाति फैक्टर जिम्मेदार है, जिसकी उपक्षा भारतीय जनता पार्टी ने वहां पूरी तौर पर कर दी। 1990 के मंडल आयोग की कुछ सिफारिशें लागू करने की घोषणा वीपी सिंह ने की थी, उस समय भारतीय जनता पार्टी ने उसका विरोध किया था। उसके कारण उसकी छवि पिछड़ा और दलित विरोधी बन गई थी। यही कारण है कि उसे लालू को सत्ता से बाहर करने के लिए मंडल आंदोलन के समर्थक नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश कर चुनाव लड़ना पड़ा था और उसमें वह सफल भी हुई।