इसके अलावा बिहार चुनाव में हार को लेकर भारतीय जनता पार्टी के अंदर भी असंतोष है। इसके अपने कुछ सांसद केन्द्रीय नेतृत्व पर हमला कर रहे हैं। उन्हें पार्टी के अंदर जब कभी भी मंच उपलब्ध होगा, वे बोले बिना नहीं रह सकेंगे। कुछ सांसद चुपचाप सबकुछ देख रहे हैं। समय आने पर वे भी मुखर हो सकते हैं। संघ के कुछ सहयोगी संगठन केन्द्र सरकार के कुछ आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का भी विरोध कर रहे हैं।

इसके अलावा नरेन्द्र मोदी के सामने एक समस्या यह भी है कि देश के अंदर और बाहर उनकी विश्वसनीयता को जो चोट लगी है, उसे वापस करने की कोशिश भी करें। और वह कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करवा कर ही कर सकते हैं।

केन्द्रीय संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू भी इस बात को लेकर चिंतित हैं। उन्हें पता है कि आगे संसद के सत्र के दोरान सदन में क्या हो सकता है। यही कारण है कि सत्र का समय तय करने के बाद उन्होंने कहा कि विपक्षी पार्टियों को इस बात को समझना चाहिए कि बिहार चुनाव में उसे संसद का सत्र बाधित करने का जनादेश नहीं मिला है।

पिछले सदन को कुछ विपक्ष पार्टियों ने चलने नहीं दिया था। कहने को कुछ काम हो पाए थे। वे विदेश मंत्री सुषम स्वराज को हटाए जाने की मांग कर रहे थे। उनके अलावा राजस्थान की मुख्यमंत्री विजयाराजे सिंधिया की बर्खास्तगी की मांग भी वे कर रहे थे। उन दोनों पर आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के साथ आपराधिक रिश्ते होने के आरोप लग रहे थे।

कांग्रेस की कोशिश सुधार कार्यक्रमों को धीमा बनाना है, ताकि उनके कारण अर्थव्यवस्था में आई बेहतरी का श्रेय भाजपा न ले सके। जब विपक्ष में थी, तो भारतीय जनता पार्टी भी ठीक यही कर रही थी। अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर कांग्रेस राज्यसभा के पटल पर विदेशी निवेश की केन्द्र सरकार की कुछ घोषणाओं को पराजित करना चाहती है। जहां तक जीएसटी की बात है, तो कांग्रस वहां लचीला रुख अपना सकती है। लेकिन इसके लिए सरकार को उसे विश्वास में लेना होगा।

बिहार चुनाव ने कांग्रेस के लिए भी एक चुनौती खड़ी कर दी है। वह चुनौती नीतीश कुमार के केन्द्र में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनकर उभरने से पैदा हुई है। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल मिलकर एक राजनैतिक धुरी तैयार कर सकते हैं, जिसके केन्द्र में नीतीश कुमार हो सकते हैं। वे समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लाने की कोशिश कर सकते हैं।

यह तो सबको पता है कि भाजपा को लोकसभा में बहुमत हासिल है, लेकिन राज्यसभा मंे उसे इसका अभाव है। 245 सदस्यों वाली लोकसभा में उसके पास सिर्फ 55 सांसद हैं। यदि विपक्ष का साथ नहीं मिला, तो उसके लिए कोई भी विधेयक राज्यसभा से पारित कराना आसान नहीं होगा। दोनों सदनों में इस समय 67 विधेयक लंबित हैं। 59 तो अकेले राज्यसभा में ही हैं और 8 लोकसभा में हैं। इसके अलावा अनेक नये विधेयक संसद में पेश किए जाने का इंतजार कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी के पास बहुत ही सीमित विकल्प हैं। सबसे पहले तो उसे अपने सहयोगियों को भी अपने साथ बनाए रखना है। अकाली दल और शिवसेना भारतीय जनता पार्टी से कुछ मसलों पर अलग लाइन ले रही है। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी पार्टियों से भी अपने रिश्ते सुधारने पड़ेंगे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी विपक्षी नेताओं के साथ ज्यादा से ज्यादा संवाद करना होगा। उनकी तरफ से यदि थोड़ी भी विनम्रता दिखाई गई, तो उससे सदन के संचालन में सुविधा हो जाएगी। वामपंथी दलों के अलावा अब कोई भी दल आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का विरोध नहीं करता। इसलिए उन मसलों पर संसद मंे विपक्ष को विश्वास में लेना सरकार के लिए कठिन नहीं होना चाहिए। पर इसके लिए भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी। (संवाद)