हार के बाद रामविलास पासवान को ईमादनदारी से अपनी हार की समीक्षा करनी चाहिए थी। उनकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी 158 में से 53 सीटों पर चुनाव जीती। यानी भाजपा के 3 में से 1 उम्मीदवार विजयी हुए, जबकि रामविलास पासवान के 20 में से 1 उम्मीदवार ही जीते। अब भारतीय जनता पार्टी के अनेक नेता कह रहे हैं कि यदि उनका रामविलास पासवान की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं होता, तो उनको दी गई सीटों मंे कम से कम 14 सीटें तो भाजपा जीत ही सकती थी। सच तो यह है कि रामविलास पासवान द्वारा अपने परिवार जनों और रिश्तेदारों को दिए गए टिकटों के कारण लालू यादव के परिवारवाद पर नरेन्द्र मोदी के द्वारा किए गए हमले का उलटा असर पड़ा। रामविलास द्वारा टिकट बेचने की चर्चाओं के बीच लालू यादव के भ्रष्टाचार के बारे में जो कुछ कहा गया, उसे भी बिहार की जनता ने गंभीरता से नहीं लिया। लिहाजा गठबंधन की हार के कुछ प्रमुख कारणों में एक कारण भाजपा का रामविलास का साथ भी था।
हार के बाद रामविलास पासवान का निराश होना स्वााभाविक भी था, लेकिन उनकी हताशा का आलम यह है कि वे बिहार विधानसभा के मध्यावधि चुनाव की ही भविष्यवाणी कर रहे हैं। उनका कहना है कि लालू और नीतीश एक साथ रह ही नहीं सकते। इसलिए वे अलग होंगे और उसके बाद विधानसभा का आम चुुनाव हो जाएगा। लेकिन रामविलास पासवान यह भूल रहे हैं कि नीतीश कुमार लंबे समय तक भारतीय जनता पार्टी के साथ रह चुके हैं। भाजपा के समर्थन से वे मुख्यमंत्री बने। इसलिए एक विकल्प के रूप में भाजपा उनके लिए आगे भी उपलब्ध रहेगी। यदि राजद के साथ नीतीश की नहीं पटी, तो वे भाजपा के साथ मिलकर सरकार क्यों नहीं बना सकते? गौरतलब है कि भाजपा के 53 विधायकों के साथ मिलकर नीतीश कुमार के जनता दल(यू) के विधायक 124 सदस्यों का आंकड़ा प्राप्त कर लेते हैं और यह बहुमत का आंकड़ा है।
वैसे यह मानना अभी जल्दबाजी होगी कि लालू और नीतीश की आपस में नहीं निभ पाएगी। यह सच है कि दोनों अलग अलग प्रकृति के व्यक्ति हैं। नीतीश कुमार ने परिवारवाद को कभी भी बढ़ावा नहीं दिया, जबकि लालू यादव का नाम तो परिवारवादी व्यक्ति का पर्यायवाची हो गया है। लालू यादव भ्रष्टाचार के मामले में सजा पाए हुए व्यक्ति हैं, जबकि नीतीश कुमार की छवि एक ईमानदार नेता की है। लालू यादव बड़बोले हैं, जबकि नीतीश कुमार कम बोलते हैं। लालू यादव की प्रतिबद्धता लोगों के साथ नहीं है। उन्हें अपने और अपने परिवार के अलावा और कोई नहीं दिखाई देता, जबकि नीतीश कुमार ने लोगों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के सबूत बार बार दिया है। इसलिए इन दोनों का एक साथ बने रहने में दोनों को कठिनाई जरूर होगी।
पर अब ये नेता पहले जैसे नेता नहीं रहे, जो लड़ झगड़ कर अलग हो जाते हैं। जो बहुत दिनों तक विपक्ष में रहता है, वह सत्ता में आने के बाद उसे पचा नहीं पाता और आपस में लड़ झगड़ कर अलग हो जाता है। लेकिन लालू और नीतीश लंबे समय से सत्ता में रह चुके हैं और अब सत्ता ने बने रहने के लिए एक दूसरे कोई बर्दाश्त करने में केाई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। अपने स्वभाव के अनुकूल लालू सत्ता का इस्तेमाल अपने निजी और पारिवारिक हितों को पूरा करने की कोशिश के लिए करेंगे, जबकि नीतीश कुमार वैसा करने से उन्हें रोकेंगे। इसके कारण दोनों के बीच तनातनी बनी रह सकती है। पटना के गलियारों से आ रही खबरों के अनुसार उस तरह की खबर आ भी रही है, जिसके अनुसार लालूु यादव अपने हिसाब से आईएएस अफसरों का पदस्थापन चाहते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि उनके दल के मंत्रियों के काम में नीतीश कुमार दखल नहीं दें, लेकिन सरकार तो नीतीश कुमार की ही है। इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों से मुह मोड़ भी नहीं सकते और अपने हिसाब से अफसरों की तैनाती चाहेंगे। वे यह भी देखना चाहेंगे कि उनके सारे मंत्री सही तरीके से काम करें और उनके कार्यों से भ्रष्टाचार के छीेंटे सरकार के दामन पर नहीं पड़े।
आपस में निभाना लालू और नीतीश की समस्या है, लेकिन रामविलास पासवान उनके बारे में सोच सोच कर यदि पतले हो रहे हैं, तो उसका एक और कारण है। वह कारण उनका यह डर है कि कहीं संसद के शीतकालीन सत्र के बाद उन्हें नरेन्द्र मोदी सरकार से बाहर का रास्ता न दिखा दें। बिहार चुनाव मंे राजग की हार के लिए रामविलास पासवान को एक बड़ा कारण माना जा रहा है। इसके अलावा दाल की बढ़ी कीमतों के लिए भी उनको ही जिम्मेदार माना जा रहा है, क्योंकि केन्द्रीय खाद्य मंत्री होने के कारण कीमतों पर लगाम लगाना उनकी जिम्मेदारी थी। जहिर है, सरकार में बने रहने के लिए रामविलास पासवान भाजपा को अपनी उपयोगिता बता रहे हैं कि लालू और नीतीश के गठबंधन के टूटने के बाद होने वाले चुनाव में उनकी जरूरत भाजपा को बहुत जल्द पड़ेगी। (संवाद)
कब तक निभेगी लालू और नीतीश के बीच?
रामविलास की हताशा का जवाब नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-11-30 10:28
केन्द्रीय खाद्यमंत्री बिहार के स्वयंघोषित दलित नेता रामविलास ने कहा है कि लालू और नीतीश साथ दो साल से ज्यादा नहीं चल पाएगा और उनका गठबंधन टूटने के साथ बिहार में विधानसभा का मध्यावधि चुनाव हो जाएगा। श्री पासवान कोई राजनैतिक विश्लेषक नहीं हैं, बल्कि खुद एक राजनीतिज्ञ हैं। इसलिए उनके द्वारा इस तरह का बयान अस्वाभाविक नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में वे भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रहे थे। उसमें उनकी पार्टी को 41 सीटें लड़ने को मिली थीं। 41 में मात्र दो ही उम्मीदवार जीत सके। यानी रामविलास पासवान वहां बुरी तरह पिटे। 2011 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लालू यादव के साथ गठबंधन किया था और तब उनकी पार्टी को 3 सीटें मिली थीं। जाहिर है, इस बार उनकी हालत और भी पतली रही। उन्होंने अपने दर्जन भर से ज्यादा परिवार जनों और रिश्तेदारों को पार्टी का उम्मीदवार बना दिया था। वे सभी के सभी पराजित हो गए। उन्होंने अपने भाई को दो विधानसभा क्षेत्रों से टिकट दिए थे। दोनों जगहों पर वे हार गए। उन पर आरोप लगे कि अपने परिवार और रिश्तेदार से बाहर उन्होंने पैसे लेकर टिकट दिए। अपराधियों को भी भारी संख्या में उन्होंने चुनाव मैदान में उतार दिया था। यानी जो कुछ राजनीति में गलत माना जाता है, सबकुछ उन्होंने किया।