हमारा देश अपनी आजादी के सात दशक पूरे करने की कगार पर है। इस दौरान सबसे लंबे समय देश पर प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शासन किया। इस नाते अपने साढे सात दशक के सफर में देश को हासिल कई उपलब्धियों का श्रेय अगर नेहरू के द्वारा रखी गई नीतिगत बुनियाद को जाता है तो देश आज जिन चुनौतियों से रूबरू है उसके लिए भी कहीं न कहीं नेहरू ही जिम्मेदार हैं। अभी-अभी देश ने नेहरू की 125वीं जयंती मनाई है। उनके जन्म का यह 125वां साल एक मौका हो सकता था नेहरू के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन का, लेकिन यह मौका भी नेहरू को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में गंवा दिया गया।
इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा (और उसकी पूववर्ती जनसंघ) शुरू से ही अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता संबंधी नेहरू के विचारों और कार्यों की आलोचक रही है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी नरेन्द्र मोदी और अन्य भाजपा नेता देश के समक्ष मौजूद तमाम समस्याओं के लिए नेहरू और उनकी सोच को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं और सत्ता में आने के बाद भी नेहरू को कोसने का सिलसिला उन्होंने बंद नहीं किया है। इसलिए सोनिया गांधी की उनके प्रति शिकायत जायज तो है लेकिन उसमें नया कुछ नहीं है। मगर सवाल उठता है कि खुद कांग्रेस भी नेहरू की अनदेखी करने या उनके रास्ते से भटक जाने के अपराध से कैसे बरी हो सकती है, जिसका नेतृत्व पिछले लगभग डेढ दशक से खुद सोनिया गांधी कर रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि नेहरू को अपने जीवनकाल में तो जनता से बेशुमार प्यार और सम्मान मिला लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी लगातार अनदेखी होती गई और उनकी प्रतिष्ठा में कमी आई। कहा जा सकता है कि ऐसा कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ताकत बढ़ने के कारण हुआ लेकिन हकीकत यह भी है कि खुद कांग्रेस भी उनकी मृत्यु के बाद उनसे लगातार दूर होती चली गई। केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों ने बड़ी-बड़ी सरकारी परियोजनाओं को तो नेहरू का नाम जरूर दिया लेकिन व्यवहार में वे उनकी वैचारिक विरासत से दूर होती चली गई, फिर वह मामला चाहे आर्थिक नीतियों का हो, धर्मनिरपेक्षता का हो या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं के सम्मान का।
दरअसल, नेहरू के साथ उनके मरणोपरांत वही हुआ, जो नेहरू और उनकी कांग्रेस ने महात्मा गांधी के साथ किया था। जिस तरह आजादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालते ही नेहरू ने गांधी की स्वावलंबन और हिन्द स्वराज संबंधी सारी सीखों को दकियानूसी करार देते हुए खारिज कर दिया था, उसी तरह नेहरू की मृत्यु की बाद उनके वारिसों ने भी नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते को छोड़ दिया। नेहरू को अपने पूरे जीवनकाल में कांग्रेस के बाहर तो नहीं, लेकिन कांग्रेस के भीतर भरपूर सम्मान मिला लेकिन आज हालत यह है कि सिर्फ चाटुकारिता और वंश-विशेष की पूजा में ही अपना करियर तलाशते लोगों को छोड़कर शायद ही कोई उनके समर्थन में खड़ा मिलेगा। उनके विचारों को समझने की इच्छा रखने वालों की तादाद भी नगण्य ही होगी।
1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद माना जाने लगा था कि अब देश की राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव खत्म हो जाएगा और भारत के पहले प्रधानमंत्री के विचारों का बेहतर आकलन हो सकेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समय तक आर्थिक नीतियों संबंधी नेहरू के विचार अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे लेकिन उनकी विरासत के कई दूसरे प्रासंगिक हिस्सों को मजबूत किया जा सकता था, मसलन विधायिका और संसदीय प्रक्रियाओं को लेकर उनकी प्रतिबद्धता, सार्वजनिक संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की उनकी कोशिशें, धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बहुलता और लैंगिक समानता जैसे विचारों को लेकर उनकी चिंता तथा वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान को प्रोत्साहन देने वाले केंद्रों की स्थापना पर जोर। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका। वस्तुतः नेहरू कभी उस बोझ से मुक्त नहीं हो पाए, जो उनके अपने ही वंशजों की देन थी।
सोनिया गांधी ने 1998 में तमाम कांग्रेसियों के अनुनय-विनय पर कांग्रेस की बागडोर संभाली थी। तब से लेकर अब तक 16 वर्षों से वे पार्टी अध्यक्ष बनी हुई हैं। इस दौरान 16वें आम चुनाव से पहले उनके बेटे राहुल को उनका उत्तराधिकारी बनाया जा चुका है। हालांकि आम चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को मिली करारी पराजय के बाद उनकी नेतृत्व क्षमता पर दबे स्वरों में सवाल उठने शुरू हो गए हैं लेकिन ऐसे सवाल उठाने वाले अभी भी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर झांकने को तैयार नहीं हैं। वे राहुल के विकल्प के तौर पर प्रियंका की ओर देख रहे हैं। मशहूर समाजशास्त्री आंद्रे बेते के शब्दों में श्मरणोपरांत नेहरू की स्थिति बाइबिल की उस मशहूर उक्ति के ठीक विपरीत दिशा में जाती दिखी जिसके मुताबिक पिता के पापों की सजा उसकी आगामी सात पीढ़ियों को भुगतनी होती है।
दरअसल, नेहरू के मामले में उनकी बेटी, नवासों, नवासों की पत्नियों और पर-नवासों के कर्मों ने उनके कंधों का बोझ ही बढ़ाया है। संभवतः नेहरू को अपने जीवनकाल में मिली अतिशय चापलूसी का ही नतीजा है कि मरणोपरांत उन्हें पूरी तरह खारिज किया जाने लगा। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति सार्वजनिक जीवन, राजनीतिक विमर्शों और खासकर साइबर संसार में तेजी से फैली है। लगता नहीं कि जब तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहेंगे, तब तक नेहरू के जीवन और उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर कोई वस्तुनिष्ठ, न्यायपूर्ण और विश्वसनीय धारणा बनाई जा सकेगी। (संवाद)
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कौन नहीं है नेहरू के गुनहगार?
मरणोपरांत उन्हें खारिज किया जाने लगा
अनिल जैन - 2015-12-07 11:16
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक असहमति जगजाहिर है। केंद्र में उसकी सरकार के शीर्ष नेता जब-जब भी इस असहमति का इजहार करते हैं तो कांग्रेस की तरफ से आपत्ति जताते हुए कहा जाता है कि मौजूदा सरकार नेहरू की शानदार विरासत को न सिर्फ नकारने का बल्कि उसे योजनाबद्ध तरीके से मिटाने का भी प्रयास कर रही है। लेकिन डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर संविधान के प्रति प्रतिबद्धता’ पर संसद में दो दिन की विशेष बहस के दौरान पहले गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने और फिर बहस का समापन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आधुनिक भारत के निर्माण में और देश में लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने में जवाहरलाल नेहरू के योगदान की उदारतापूर्वक और अप्रत्याशित रूप से सराहना की है। अब नेहरू की इस सराहना ने कांग्रेस नेतृत्व को कितना संतुष्ट किया होगा, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन हकीकत यह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन होना अभी शेष है।