हालात की विभीषिका को देखते हुए प्रधानमंत्री भी वहां हो आए हैं। उन्होंने हवाई मुआयना किया और एक हजार करोड़ रुपए राहत-राशि के तौर पर देने की घोषणा की। मुख्यमंत्री जयललिता ने भी हालात का जायजा लिया। कहने का मतलब यह है कि जितने भी संभव थे, उतने आर्थिक और मानव संसाधन झोंक दिए गए हैं। फिर भी जो दुश्वारियां बनी हुई हैं, उनसे चेन्नई को आपदा का और उसके समुचित प्रबंधन का न भुलाया जा सकने वाला एक सबक बनाया जा सकता है। इसमें दो राय नहीं कि चेन्नई की मौजूदा मुसीबत भारी बारिश की देन है। लेकिन यह स्थिति बढ़ रहे पर्यावरणीय संकट और शहरी अनियोजन या कुनियोजन की तरफ भी इशारा करती है। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा आशय है, जलवायु परिवर्तन। इसके चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। उत्तराखंड का जल प्रलय, कश्मीर की बाढ, आंध्र में आया चक्रवात, इसी वर्ष के पूर्वार्द्ध में उत्तर- मध्य भारत में हुई बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि आदि उसी के उदाहरण है। चेन्नई में भारी बारिश का दौर और फलस्वरूप आई बाढ़ इसी सिलसिले की ताजा कड़ी है। कोढ़ मे खाज की तरह शहरी कुनियोजन ने हालात और विकट कर दिए हैं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक चेन्नई में साढे़ छह सौ कुदरती जल भंडारण केंद्र, जिनमें बड़ी झीलें, तालाब और ताल शामिल हैं, नष्ट कर दिए गए हैं। और उनकी जगह बना दी गई हैं बेतरतीब ऊची-ऊची इमारतें। महानगर का सबसे बड़ा मॉल ’फीनिक्स’ एक झील की बलि चढ़ा कर बना है। अगर जलाशयों और झीलों को न पाटा गया होता और जल निकासी की फिक्र की गई होती, तो स्थिति इस हद तक न बिगड़ती। कुल मिलाकर यह सब याराना या आवारा या पूंजीवादी खेल का परिणाम है। यह खेल कमोबेश हर बडे शहर में खेला जा रहा है, जिसमें लालची बिल्डर, भ्रष्ट राजनेता और नौकरशाह अहम खिलाडी होते हैं। निर्माण-कार्यों की मंजूरी देने में नियम-कायदों की अनदेखी होती रही है और हो रही है। यह बात उत्तराखंड और कश्मीर की बाढ़ की बाबत भी सही है और चेन्नई के संदर्भ मे भी। हर जगह भीषण तबाही की सबसे बडी वजह है- विकास के नाम पर गैर जिम्मेदाराना निर्माण। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, आदि महानगर ही नहीं बल्कि महानगर की शक्ल लेते जा रहे लखनऊ , पटना, जयपुर, भोपाल, इंदौर, नागपुर जैसे तमाम बडे शहरों पर आबादी का बोझ लगातार बढता जा रहा है। लोगों को बसाने और उन्हें रोजगार देने के लिए नए निर्माण जरूरी है, लेकिन ऐसा करते हुए कुदरती आपदाओं से शहरों को बचाए रखना भी जरूरी है। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली की न तो हवा निरापद है और न ही पानी। दोनों में जहर घुल चुका है। मुंबई, कोलकाता समेत देश के तमाम महानगरों और बडे शहरों के हालात भी इससे जुदा नहीं हैं। बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी के शेखचिल्लीपन और जुमलेबाजी के बजाय हमारी सरकारों की पहली प्राथमिकता इन शहरों को रहने लायक बनाने की होनी चाहिए।

जिस तरह तमाम राज्यों में नदियों के ऐन किनारों तक धड़ल्ले से निर्माण-कार्य होते रहे और तालाबों और झीलों को पाट कर आवासीय कॉलोनियां और बहुमंजिला इमारतें बनती रही, उसी तरह समुद्रतटीय नियमन कानून का भी लंबे समय से उल्लंघन होता रहा है। कई मामलों में पैसे का खेल रहा होगा। पर एक बडा कारण यह भी है कि अनदेखी का नतीजा दूर कहीं भविष्य में अदृश्य होता है, इसलिए निर्णय-प्रक्रिया में शामिल लोगों को ठीक अहसास नही होता कि वे कितना बड़ा गुनाह कर रहे हैं। पर अब क्या वे चेतेंगे? कहना मुश्किल है, क्योंकि विकास की मौजूदा अवधारणा अधिक से अधिक शहरीकरण और केंद्रीयकरण पर टिकी है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में विकास के इस मॉडल ने ढेर सारी समस्याएं पैदा की हैं।

विशेषज्ञ लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ, भूस्खलन और संक्रामक बीमारियों जैसी असामान्य स्थितियों का सामना हमें लगातार करना पडेगा। जिस तेजी से लोगों का गांवों से पलायन हो रहा है और शहरीकरण बढ रहा है उसे देखते हुए अनुमान है कि सन 2०3० तक देश की आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी। इसके लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा बनाते वक्त नीति नियामकों को चेन्नई की मौजूदा तस्वीरें हमेशा अपने सामने रखना होगी। जलवायु संकट से निपटने के उपायों पर माथापच्ची करने के लिए इन दिनों सारी दुनिया से विभिन्न सरकारों के प्रतिनिधि, विशेषज्ञ, कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी पेरिस में जुटे। उस जमावडे में हमारे प्रधानमंत्री समेत सभी राष्ट्राध्यक्षों ने जो कहा है उसका मूल स्वर यही है कि जलवायु परिवर्तन प्राणिमात्र के अस्तित्व पर संकट खडा कर रहा है। पर इसी के साथ सबने यह भी कहा है कि इस संकट को रोकने की जिम्मेदारी हम ही क्यों उठाएं? जाहिर है कि उनमें से कोई भी विकास के वैकल्पिक मॉडल पर सोचने को तैयार नहीं है। सवाल है कि जो विकास जलवायु का विनाश करे और मनुष्य के अस्तित्व के लिए संकट पैदा करे उसे विकास कैसे कहा जा सकता है? बहुलेनीय सडकें और गगनचुंबी अट्टालिकाएं ही विकास की कसौटी नहीं हो सकती, बल्कि उन सडकों पर चलने और उन अट्टालिकाओं में रहने वाला इंसान, उसका समाज और उसका पर्यावरण ही विकास की एकमात्र कसौटी हो सकती है। इस हकीकत को आज नहीं तो कल कुबूल करना ही पडेगा। (संवाद)