2016 का साल भी भारतीय जनता पार्टी के लिए हार का पैगाम लेकर आया है। महाराष्ट्र में नगर परिषदों और नगरपंचायतों के चुनाव परिणाम जनवरी महीने के दूसरे सप्ताह में ही आए और वहां उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। विधानसभा चुनाव उसने अकेले लड़ा था और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने का उसे सुख मिला था। इसके कारण वहां उसके नेतृत्व वाली सरकार ही है। लेकिन उसी महाराष्ट्र में हुए नगर परिषदों और नगर पंचायतों के चुनावों मंे एक भी परिषद या पंचायत पर कब्जा न कर पाना भाजपा के लिए कोई साधारण घटना नहीं होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2022 के भारत की बात करते हैं और उसके लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं, जबकि उन्हें पता है कि उन्हें पिछले लोकसभा चुनाव मंे जनादेश 2019 तक के लिए ही मिला है। वे 2019 में महात्मा गांधी की डेढ़ सौंवी जयंती मनाने का सपना भी देख रहे हैं, लेकिन जयंती तो 2 अक्टूबर को मनाई जाएगी, पर उसी साल अप्रैल और मई महीने में उन्हें लोकसभा चुनावों का सामना करना पड़ेगा। 2014 में चुनाव जीतने के बाद उन्हें लग रहा था कि 2019 का चुनाव भी वे जीत ही जाएंगे और इसके कारण वे 2019 के बाद के लक्ष्य निर्धारित करने लगे।

2015 की हारों के बाद 2016 की शुरुआत भी भारतीय जनता पार्टी की हार से ही हुई है। लेकिन पार्ट हार के कारणों को नजरअंदाज कर रही है। दिल्ली मंे हार के बाद ही उसे समझ जाना चाहिए था कि 2014 में जनता ने उसे जीत क्यों दिलाई। भारतीय जनता पार्टी के अनेक नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि लोकसभा में उसकी विचारधारा की जीत हुई, लेकिन उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि उनकी विचारधारा चुनावी मुद्दा थी ही नहीं। लोगों ने नरेन्द्र मोदी को वोट दिया था।

लेकिन नरेन्द्र मोदी को लोागें ने क्यों वोट दिया था, इसके बारे में सही तरीके से समझने में खुद श्री मोदी गलती कर रहे हैं। मोदीजी का दावा है कि लोगों ने उनको विकास के लिए वोट दिया था। इसमें कोई शक नहीं कि लोग विकास चाहते हैं, लेकिन यह कहना कि 2014 के लोकसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा विकास था, गलत है। लोग विकास न हो पाने के कारण कांग्रेस से नाराज नहीं थे। सच कहा जाय, तो जिस मानदंडों पर नरेन्द्र मोदी विकास को नापते हैं, उस मानदंडों पर यदि मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल मंे हुए विकास को मापा जाय, तो वह कम नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल की अपेक्षा मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान विकास दर ज्यादा थी। यदि उसी काल में विकास दर को देखा जाय, तो बिहार की नीतीश सरकार के दौरान वहां की विकास दर गुजरात की विकास दर से ज्यादा थी। बिहार ही क्यों, विकास के मामले में मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चैहान की कार्यकाल भी बेहतर था।

इसलिए यदि आगे हार से बचना है और 2019 के चुनाव में भी जीत को देखना है, तो मोदीजी को 2014 का जनादेश ध्यान से पढ़ना चाहिए। वह जनादेश भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ था। महंगाई एक बड़ी समस्या थी और उसके लिए भी लोग भ्रष्टाचार को ही जिम्मेदार मान रहे थे, जो सही भी था, क्योंकि भ्रष्टाचार भारत को एक उच्च लागत वाली अर्थव्यवस्था बना चुका है। नरेन्द्र मोदी भले गुजरात के विकास का गाना गा रहे थे, लेकिन लोगों को लग रहा था कि उनके प्रधानमंत्री बनने से भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा और भ्रष्टाचारियों को सजा भी मिलेगी। चूंकि नरेन्द्र मोदी पर उनके विरोधी भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा पाते थे और खुद नरेन्द्र मोदी ने अपना परिवार त्याग रखा था, इसलिए लोगों को लगा कि यह व्यक्ति न तो भ्रष्ट है और न ही इसे भ्रष्ट किया जा सकता है। इसके साथ ही लोगों को लगा कि यह व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका सही नायक होगा।

समाज के अलग अलग हिस्से अलग अलग कारणों से वोट देते हैं। कुछ तो पार्टियों के प्रति प्रतिबद्ध वोटर होते हैं और किसी भी स्थ्तिि में अपनी पार्टी को वोट देते हैं, लेकिन हार और जीत वे लोग तय करते हैं, जिनका किसी पार्टी से कोई खास और स्थायी लगाव नहीं होता है। वे जिधर जाते हैं, जीत उसकी हो जाती है। तो ऐसे लोगों ने भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ही नरेन्द्र मेादी को अपना नायक माना था और उनके कहने पर ऐसे लोगों को भी लोकसभा का सदस्य बना दिया, जिनके भ्रष्टाचार के बारे में उन्हें कोई शक नहीं था।

दिल्ली के चुनाव के पहलं यदि मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ किया होता, तो जीत वहां भाजपा की ही होती। दिल्ली मंे हुए काॅमनवेल्थ घोटाले पर घोटालेबाज राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई होती, तो जीत भाजपा की ही होती, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं और केजरीवाल को लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले नायक के रूप में मोदी से ज्यादा पसंद किया। बिहार के चुनाव के पहले मोदी की भ्रष्टाचार विरोधी छवि तार तार हो चुकी थी, क्यांेकि सुषमा स्वराज पर ठोस सबूतों के साथ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों पर मोदीजी ने चुप्पी साध ली थी। उसके कारण ही बिहार के लोग फिर जाति लाईन पर चले गए, यदि भ्रष्टाचार विरोधी नेता की छवि बनी रहती, तो बिहार के मतदाताओं का कम से कम 10 फीसदी हिस्सा जाति से उठकर मोदी के उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डाल ही देते और शायद भाजपा की सरकार भी वहां बन जाती।

अब भी मोदीजी के पास समय है कि अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि को वे खराब होने से बचाएं। इसके लिए उन्हें पहले तो अपनी सरकार को भ्रष्ट तबकों से मुक्त करना होगा और अपनी व पिछली सरकार के भ्रष्ट लोगों का कानून के दायरे में लाना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उनकी पार्टी चुनाव हारती जाएगी और पता नहीं, मध्यप्रदेश और गुजरात का उनकी पार्टी का गढ़ भी ढह जाय। (संवाद)