आम्बेडकर की प्रशंसा और उन्हें गौरवान्वित कर प्रधानमंत्री अपनी पार्टी की पैठ दलितों के बीच में पहुंचा रहे थे। शायद उन्हें इसका लाभ भी मिल रहा था, क्योंकि पहली बार दलितों ने भारी संख्या मे बिहार में भाजपा और उसके समर्थित उम्मीदवारों को अपने मत दिए थे और वहां भाजपा की हालत दिल्ली जैसी होने से बचा दिया था।

लेकिन हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र रोहित वेमूला की आत्महत्या ने नरेन्द्र मोदी के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती पेश कर दी है। रोहित वेमूला आम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएसन का नेता था। वह आम्बेडकरवादी था और उनके आदर्शों पर चलकर फांसी की सजा का विरोधी था। उसकी आत्महत्या साधारण आत्महत्या नहीं थी। उसे विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा प्रताड़ित किया गया था। उसे होस्टल से निकाल दिया गया था। विश्वविद्यालय परिसर के अनेक सार्वजनिक स्थलों पर उसके प्रवेश को पाबंदी लगा दी गई थी। यानी सामंती समाज में जिस तरह से एक अछूत के साथ व्यवहार किया जाता था, लगभग वैसा ही व्यवहार उसके साथ विश्वविद्यालय का प्रशासन कर रहा था। उसका गुनाह सिर्फ यह था कि उसकी राजनीति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी से जुडे छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राजनीति की प्रतिद्वंद्वी थी। परिषद याकूब मेमन की फांसी का जश्न मनाती थी, तो वेमुला का संगठन उस फांसी का विरोध कर रहा था, क्योंकि खुद आम्बेडकर फांसी की सजा के विरोधी थी। छात्र संघ के चुनावों मंे भी वेमुला का संगठन परिषद पर भारी पड़ गया था। परिषद के छात्रों के साथ वेमुला की मारपीट भी हुई थी।

लेकिन छात्रों की उस राजनैतिक प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता में केन्द्र सरकार के दो मंत्री भी कूद पड़े। एक मंत्री तो वहां के स्थानीय सांसद बंडारु दत्तात्रेय हैं और दूसरी केन्द्र सरकार के मानव संसाधन विकास की मंत्री स्मृति ईरानी। जहां बंडारु ने स्मृति को पत्र लिखकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रतिद्वंद्वी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की, वहीं स्मृति ईरानी से एक के बाद एक 6 पत्र लिखकर विश्वविद्यालय प्रशासन को बाध्य कर दिया कि वह वेमुला और उसके अन्य 4 साथियों के खिलाफ कुछ ऐसी कार्रवाई करें, जिससे वहां की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताआंे को यह कहने का मौका मिले कि देखो हमसे टकराने का क्या हश्र होता है।

वेमुला और उसके साथियों के खिलाफ कार्रवाई का एक उद्देश्य परिषद की पैठ दलित छात्रों के बीच में बढ़ाने की भी हो सकती है। परिषद दलित छात्रों के बीच अपनी पैठ बढ़ा पाएगी या नहीं, यह सवाल तो अपनी जगह है, लेकिन इस पूरे मसले ने सह सवाल खड़ा कर दिया है कि नरेन्द्र मोदी समाज के हाशिए पर गए समूहों के बीच अपनी पैठ बढ़ा पाते हैं या नहीं। अब यह भी पता चलेगा कि उनका आम्बेडकर प्रेम वास्तविक था या वह भी सिर्फ कहने के लिए आम्बेडकर के नाम की कसमें खा रहे थे, जिसके लिए देश के अन्य राजनीतिज्ञ लोगों के बीच कुख्यात हो गए हैं।

सबसे त्रासद यह तथ्य है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आम्बेडकर को श्रद्धांजलि के रूप में संसद से दलित कानून (एससी/एसटी एक्ट) को मजबूत बना रहे थे, ताकि दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार कर रहे लोगों को कड़ी सजा दिलाई जा सके, वहीं उनकी सरकार की एक मंत्री स्मृति ईरानी विश्वविद्यालय प्रशासन को पत्र पर पत्र लिखकर आम्बेडकरवादी दलित छात्रों पर अत्याचार करने का दबाव बना रही थीं। दोनों का एक साथ चल रहा था। सार्वजनिक तौर पर आम्बेडकर का गुणगान और चुपके चुपके आम्बेडकरवादियों को उनकी सही जगह दिखाने का खेल।

लेकिन अब वह खेल सार्वजनिक हो गया है। अपनी आत्महत्या के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं बताकर बेमुला ने अपने अपराधियों की नीचता और अपनी श्रेष्ठता का पताका फहरा दिया है। बेमुला ने तो मरते मरते अपने अपराधियो को माफ कर दिया, लेकिन क्या भारत के वे लोग जो जाति विशेष में होने के कारण समाज के सशक्त वर्गों के अत्याचारों का शिकार होते आ रहे हैं, अपराधियों को माफ कर देंगे?

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि नरेन्द्र मोदी, जो खुद भी अपने को हाशिए पर पहुंची जातियों के लोगों के बीच का मानते हैं, अब किसका साथ देंगे? कलियुग के इस शम्बूक की हत्या का आरोप जिस मानव संसाधन विकास मंत्री पर लग रहा है, वह मंत्री नरेन्द्र मोदी की ही बनाई हुई है और वह मोदी की मर्जी तक ही अपने पद पर बनी रह सकती है। क्या उस मंत्री को हटाकर श्री मोदी आम्बेडकर के प्रति अपनी श्रद्धा को अपनी हार्दिक श्रद्धा साबित करेंगे या उसे पद पर बनाए रखकर यही साबित करेंगे कि उनकी श्रद्धा सिर्फ और सिर्फ जुबानी जमा खर्च थी।

प्रधानमंत्री को निर्णय करने के लिए थोड़ा समय दिया ही जाना चाहिए। उनके सामने एक तरफ स्मृति ईरानी हैं, जिन्हें उन्होंने अमेठी में राहुल गांधी को चुनौती देने के लिए राजनीति में आगे बढ़ाया है, तो दूसरी ओर वे सामाजिक वंचित वर्ग, जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक- सभी रूप से पिछड़े हुए हैं और जिनके विकास के रास्ते में समाज के विकसित वर्गो द्वारा हरसंभव बाधाएं पहुंचाई जाती है। अब नरेन्द्र मोदी को यह निर्णय करना होगा कि शंबूक के पक्ष में हैं या शंबूक के बधिकों के पक्ष में। (संवाद)