दरअसल, अपने देश में बाजारीकृत आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भारी बदलाव आया। न सिर्फ रहन-सहन, बल्कि कामकाज में भी भारी तब्दीली आई। खासकर शहरी मध्यवर्ग का जीवन कदम बदल गया। रोजी-रोजगार का रूप भी बदला। महिलाओं ने बड़ी संख्या में घरों से निकलकर रोजगार के क्षेत्र में प्रवेश किया। इसी के साथ खरीदारी का पैटर्न भी बदला, जिसका बड़ा कारण रहा मध्यवर्ग की कमाई में बढ़ोतरी होना। आमदनी बढ़ने से उसके उपभोग का स्वरूप भी बदला। वह कपड़ों से लेकर ऐश-ओ-आराम की तमाम चीजें खूब खरीदने लगा और बाजार में उपलब्ध तमाम तरह के ब्रांड आजमाने लगा। घर से बाहर खाने की प्रवृत्ति में भी इजाफा हुआ। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उपभोक्तावाद का नग्न प्रदर्शन शुरू हो गया।
इसी सबके चलते देश के महानगरों और बड़े शहरों में बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स बनना शुरू हुए। शॉपिंग मॉल्स यानी एक ही छत के नीचे उपभोक्ता को हर चीज उपलब्ध। मॉल में घुस जाइए, फिल्म देखिए, पेट-पूजा कीजिए, घर का राशन, कपड़े और अन्य जीवनोपयोगी चीजें खरीदिए और लौट आइए। एक तरह से उत्सव का नजारा पेश करता मॉल का पूरा तामझाम। मध्यवर्ग में आए इसी बदलाव के बीच तेजी से बढ़ी मॉल संस्कृति ने ऐसा आभास कराया मानो अब वे दिन लद गए जब कपड़े दशहरा और दिवाली जैसे त्योहारों अथवा शादी-ब्याह के मौके पर ही खरीदे जाते थे। लोग अलग-अलग चीजें खरीदने के लिए अलग-अलग बाजार जाया करते थे। कोई भी मध्यवर्गीय परिवार महीने में बमुश्किल एकाध बार ही घर से बाहर खरीदारी के लिए निकलता और होटल से खा-पीकर लौटता।
जिस तेजी से मॉल बनते गए, उससे यह सवाल भी उठा कि आखिर हरेक मॉल के लिए बिजली, पानी और दूसरे संसाधन कहां से जुट पाएंगे? दूसरी ओर गली-मोहल्ले और कॉलोनियों के छोटे-छोटे दुकानदारों में भी इस भय का संचार हुआ कि ये मॉल्स उनके कारोबार को चोट पहुंचाएंगे। हालांकि यह आशंका पूरी तरह तो नहीं लेकिन काफी हद तक निर्मूल साबित हुई, क्योंकि हमारे यहां एक तबका ऐसा भी है जो तफरीह करने के लिए मॉल तो जाता है लेकिन राशन व अपनी जरूरत का अन्य सामान अपने मोहल्ले या कॉलोनी की दुकान से ही खरीदता है। उल्लेखनीय है कि डेढ़ दशक पहले जिस दौर में मॉल संस्कृति का सूत्रपात हुआ था लगभग उसी दौर में खुदरा कारोबार में देशी कॉरपोरेट घरानों के प्रवेश को भी इजाजत दी गई थी, जिस पर काफी हल्ला मचा था। आशंका जताई गई थी कि कॉरपोरेट घराने असंगठित क्षेत्र की खुदरा और किराना दुकानों को बंद करवा देंगे, जिससे देश में भारी बेरोजगारी फैल जाएगी लेकिन यह आशंका निराधार साबित हुई। इस क्षेत्र में संभावित विदेशी निवेश की क्या गत हो सकती है, इसका भी अंदाजा देश के कॉरपोरेट घरानों के खुदरा क्षेत्र में निवेश की प्रगति से भी लगाया जा सकता है। रिलायंस, फ्यूचर समूह (बिग बाजार), स्पेंसर, सुभिक्षा जैसे देश के बड़े और संगठित खिलाड़ी बड़ी धूमधाम के साथ खुदरा बाजार में उतरे थे लेकिन इनमें से सिर्फ रिलायंस और बिग बाजार ही अभी तक मैदान में टिके हुए हैं और उनके लिए भी यह बहुत फायदे का सौदा साबित नहीं हुआ है।
यहां मैकडोनाल्ड और केएफसी जैसे बहुराष्ट्रीय रेस्तराओं के किस्से को भी याद कर लेना लाजिमी होगा। अर्थव्यवस्था के बाजारीकरण के शुरुआती दिनों में ये चटपटे और चमचमाते रेस्तरां भारत आए, तो उनका भी काफी विरोध हुआ था। दिल्ली समेत कई महानगरों में उन रेस्तराओं के खिलाफ उग्र प्रदर्शन हुए। लेकिन इस शुरुआती भावुक विरोध के बाद स्थिति सामान्य हो गई और देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में भी ये रेस्तरां खुल गए। लेकिन हुआ क्या? देश के आधा फीसदी लोग भी इन रेस्तराओं की ओर रुख नहीं करते हैं। दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, लखनऊ, भोपाल, इंदौर, जयपुर कहीं भी चले जाइए, आपको इन रेस्तराओं में गिने-चुने लोग ही मिलेंगे, जबकि इनके आसपास ही स्थित खाने-पीने की दूसरी दुकानों पर हर तबके के लोगों की भीड़ मिलेगी।
तो जो हाल खुदरा कारोबार में देश के कॉरपोरेट घरानों का हुआ या विदेशी रेस्तराओं का हुआ उसी तर्ज पर अब मॉल संस्कृति का नशा भी उतार पर है। देश के सात महानगरों में मॉल्स की स्थिति का अध्ययन करने वाली विदेशी कंसल्टेंट कंपनी के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर (नोएडा, गाजियाबाद, गुडगांव, फरीदाबाद ) में 95 मॉल है, लेकिन इनमें से बमुश्किल 12 मॉल ही ठीक हालत में हैं। मुंबई, पुणे, बंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता और हैदराबाद में बने मॉल्स की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। महानगरों की शक्ल लेने को आतुर देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में कभी शॉपिंग मॉल्स समृद्धि का परिचायक माने जाते थे, वहां भी अब सारे मॉल अपनी रंगत खोते जा रहे हैं और लोगों का उनसे मोहभंग होता जा रहा है।
प्रॉपर्टी कंसल्टेंसी जोंस लैंग लसाल के मुताबिक मॉल्स में खाली जगह लगातार बढ़ रही है। देश के सात सबसे बड़े शहरों के मॉल्स में 21 फीसदी जगह खाली है। अन्य शहरों में तो हालात और भी ज्यादा खराब है। वहां के मॉल्स में एक-तिहाई से ज्यादा जगहें खाली पड़ी हैं और यह दायरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। वैसे भी देश में 600 अरब डॉलर के खुदरा बाजार का आलम यह है कि इसमें ई-कॉमर्स कंपनियों की हिस्सेदारी करीब चार अरब डॉलर है, जिसके तीन साल बाद 22 अरब डॉलर का हो जाने की उम्मीद है। यही वजह है कि चालू मॉल्स की खरीदारी में करीब 20 से 25 फीसदी की गिरावट आई है और डिवेलपर भी मॉल योजनाओं से पल्ला झाड़ने लगे हैं। यह सारा किस्सा तब है, जब मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी पूंजी का आना लगभग ठप है। आने वाले दिनों में अगर बाहरी दबाव मे आकर सरकार ने यह दरवाजा खोल दिया तो छोटी दुकानों पर तो नहीं मगर ज्यादातर मॉल्स पर जरूर ताले लग जाएंगे। (संवाद)
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उतार पर है मॉल संस्कृति का नशा
मॉल्स में खाली जगह लगातार बढ़ रही है
अनिल जैन - 2016-01-27 11:37
मामला चाहे रहन-सहन का हो या पहनने-ओढ़ने का या फिर खाने-पीने का, पश्चिमी देशों की नकल करने में हम भारतीयों का और उसमें भी खासकर हमारे मध्यवर्ग का कोई जोड़ नहीं। हालांकि यह और बात है कि नकल का यह भूत ज्यादा दिन तक उसके सिर पर सवार नहीं रह पाता है। हमारे देश के महानगरों और बड़े शहरों में बने बड़े-बड़े चमचमाते मॉल्स भी पश्चिम का ही अनुसरण माना गया। लेकिन पिछले डेढ़ दशक के दौरान जिस तेजी से यह मॉल संस्कृति उभरी थी, अब उतनी ही तेजी से वह उतार पर है। लोगों का उससे मोहभंग हो रहा है। इस समय देश कि छोटे-बड़े शहरों में लगभग 700 मॉल हैं। एक विदेशी कंसल्टेंट कंपनी द्वारा कराए गए अध्ययन के मुताबिक दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु, कोलकाता, चेन्नई आदि महानगरों के करीब 300 प्रमुख शॉपिंग मॉल्स में से 15-20 मॉल्स में ही रौनक बनी हुई है और वे ठीक-ठाक कारोबारी हालत में है। मॉल कैपिटल ऑफ इंडिया कहलाने कहलाने वाले दिल्ली- एनसीआर में भी हालत कुछ ठीक नहीं हैं। यही नहीं, देश के उभरते जिन छोटे शहरों में कभी शॉपिंग मॉल्स समृद्धि की निशानी माने जाते थे, वहां भी अब वे अपना वजूद गंवाते नजर आ रहे हैं।