यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि अरुणाचल प्रदेश जैसे संवेदनीशील सीमावर्ती राज्य के साथ केन्द्र इस तरह का बर्ताव कर रहा है। वहां का संवैधानिक संकट पूरी तरह कृत्रिम है। केन्द्र सरकार ने राज्यपाल की अनुशंसा को स्वीकार भी कर लिया। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आदेश पर दस्तखत भी कर दिया, क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।

अरुणाचल प्रदेश में लागू किए गए राष्ट्रपति शासन के आदेश को संसद के दोनो सदनों से मंजूरी मिलनी अभी बाकी है। लोकसभा में तो उसमें कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन राज्यसभा मे सरकार अल्पमत में है, इसलिए वहां होगा, उसके बारे में अभी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

अरुणाचल प्रदेश का यह मामला न्यायिक समीक्षा के दायरे में भी है। सच तो यह है कि राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के पहले से ही अदालत में वहां का राजनैतिक मामला पहुंचा हुआ है। मामले को अदालत में लंबित रहने के बावजूद केन्द्र द्वारा वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाना और भी संदेह पैदा करता है। सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार को हड़बड़ी किस बात की थी।

सुप्रीम कोर्ट के 1994 के एक फैसले में यह साफ साफ कहा गया है कि यदि किसी सरकार के बहुमत पर किसी तरह का संदेह पैदा हो, तो उसका निवारण विधानसभा के पटल पर ही हो सकता है। अरुणाचल के कांग्रेस की सरकार थी और उस सरकार को तीन चैथाई विधायकों का समर्थन प्राप्त था।

वहां कांग्रेस विधायक दल के अंदर विद्रोह हो गया और विधायक दल का एक हिस्सा वहां की सरकार के खिलाफ हो गया। भारतीय जनता पार्टी वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी है। कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा विधायकों के साथ तालमेल कर लिया। और फिर वहां की कांग्रेस सरकार को हटाने की मुहिम शुरू हो गई।

वहां की नबाम तुकी की सरकार ने विधानसभा का सत्र 14 जनवरी, 2016 को बुलाया था, लेकिन राज्यपाल ने उसे 16 दिसंबर, 2015 का कर दिया। वह सत्र हुआ भी, लेकिन विधानसभा से बाहर। उसमें सबसे पहले तो विधानसभा अध्यक्ष को हटाकर एक दूसरा अध्यक्ष चुन लिया गया और सरकार के खिलाफ भी अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया गया। गौहाटी उच्च न्यायालय ने उस सत्र की वैधता पर सवाल खड़े कर दिए, क्योंकि उसमे नियमो की अनेक अनदेखी हुई थी। सत्र विधानसभा के बाहर हुआ था और उसमें न तो स्पीकर की कोई हिस्सेदारी थी और न ही प्रदेश की सरकार की।

राष्ट्रपति शासन को लागू किए जाने के अनेक कारण बताए गए हैं। उनमें से अधिकांश तो बकवास से ज्यादा कुछ भी नहीं है, लेकिन एक कारण दमदार है। वह यह है कि किसी भी विधानसभा के दो सत्रों के बीच 6 महीने से ज्यादा का अंतराल नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति शासन लगाते हुए यह भी कहा है कि छह महीना बीत जाने के बावजूद अगला सत्र नहीं बुलाया गया और इसके कारण वहां की संवैधानिक व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी। लेकिन सचाई यह है कि राज्य सरकार ने 14 जनवरी को विधानसभा का सत्र बुलाया था, लेकिन राज्यपाल द्वारा सत्र का दिन लगभग एक महीना करने और मामले के कोर्ट में जाने के कारण 14 जनवरी को सत्र नहीं हो सका।

सत्तारूढ़ विधायकों में फूट पड़ने के कारण इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि ऐसी स्थिति मे बहुमत का परीक्षण सिर्फ और सिर्फ विधानसभा में ही हो सकता है, तो फिर राज्यपाल द्वारा उठाया गया यह कदम गैरवाजिब लगता है। केन्द्र सरकार को पहल की राज्यसरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहा जा सकता था और उसके लिए स्थितियां भी तैयार की जा सकती थीं, लेकिन उसने वैसा नहीं किया। (संवाद)