रोहित वेमुला की आत्महत्या केन्द्र सरकार पर सबसे ज्यादा भारी पड़ रही है। वेमुला ने अपनी आत्महत्या नोट में किसी का नाम नहीं लिया है, लेकिन उसके उस मौन ने एक ऐसा तूफान खड़ा किया है, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के तंबू उड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसका कारण यह है कि रोहित वेमुला ओबीसी पिता और एससी माता की संतान था और पिता से अलग रह रही मां के साथ रहने के कारण उसका एससी स्टैटस था। उसकी आत्महत्या जिन परिस्थितियों में हुईं, उनसे देश भर में यह संकेत गया है कि केन्द्र सरकार दलित विरोधी है, क्योंकि वेमुला के खिलाफ केन्द्र के दो मंत्रियों ने पत्र लिखे थे। उसके कारण उसे हाॅस्टल से निकाल दिया गया था और अंबेडकर का अनुयायी होने के कारण उसका फेलाशिप भी रोक दिया गया था। उसके करीबी बताते हैं कि 7 महीने से फेलोशिप नहीं मिलने के कारण वह टूट गया था, क्योंकि उसी से वह अपना और अपनी मां और भाई का खर्च चलाता था। फेलाशिप बंद कर दिए जाने की चर्चा उसने अपने सुसाइट नोट में की थी।

उसकी आत्महत्या एक संस्थानिक हत्या के रूप में दलितों और दलितों के हमदर्दो के बीच में देखा जा रहा है, और उसके लिए दो केन्द्रीय मंत्री और विश्वविद्यालय प्रशासन को जिम्मेदार माना जा रहा है। दलितो के गुस्से से बचने के लिए भारतीय जनता पार्टी और केन्द्र सरकार ने वेमुला के एसएसी स्टैटस को नकार कर उसे ओबीसी साबित करना शुरू कर दिया। इसका भी उलटा असर मोदी सरकार की छवि पर पड़ा। भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र में सरकार ओबीसी के व्यापक समर्थन के कारण ही बनी है। वेमुला को ओबीसी साबित करने से देश भर में यह संदेश गया कि भाजपा ओबीसी विरोधी है। यह संदेश देश की सबसे बड़ी पार्टी के लिए घातक साबित हो रही है। वेमुला की हत्या ने दलितों के बीच पैठ बढ़ाने की नरेन्द्र मोदी की कोशिशों को तो विफल कर ही दिया है और जो उन्हें ओबीसी समर्थन मिल रहा था, उसमें भारी कमी आई है।

कन्हैया प्रकरण के द्वारा मोदी सरकार वेमुला से पिंड छूड़ाना चाहती थी। वेमुला की तरह कन्हैया भी एक गरीब मजबूर परिवार का है, लेकिन वह दलित नहीं है। इसलिए भाजपा और उसकी सरकार को लगा कि कन्हैया पर हंगामा खड़ाकर वेमुला प्रकरण से देश का ध्यान हटाया जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू में कुछ अलगाववादियों द्वारा देश विरोधी नारे लगाए जाने को एक अच्छा अवसर मानकर कुछ टीवी चैनलों और छेड़छाड़ किए गए वीडियो की सहायता से कन्हैया को फंसाया गया और जनेवि को देशद्रोहियों के अड़डे के रूप में प्रचारित कराया गया। इसका देश के ही नहीं, बल्कि विदेशों के भी प्रबुद्ध वर्गो में भारी विरोध हुआ। वेमुला की आत्महत्या और उस पर मोदी सरकार द्वारा दिखाई गई प्रतिक्रिया ने दलितों और ओबीसी के बीच भाजपा के दानवी चेहरे को पेश किया, तो कन्हैया प्रकरण ने देश के मध्यवर्ग को झकझोर दिया, क्योंकि कन्हैया पर न केवल देशद्रोह का मुकदमा कर दिया गया, बल्कि पुलिस हिरासत में उस पर गुडों द्वारा हमले भी हुए।

नरेन्द्र मोदी अपनी और देश की छवि विदेशों में बेहतर करने के लिए काफी प्रयास कर रहे थे। भारत को औद्योगिक उत्पादन का भूमंडलीय केन्द्र बनाने की उनकी कोशिशों को कुछ विश्लेषक सफल होता भी मान रहे थे, लेकिन इन दोनों घटनाओं ने विदेशों में भारत की छवि धूमिल कर दी है। इन दोनों के साथ साथ हरियाणा में जाट आंदोलन से हुए हजारों करोड़ रुपयों की संपत्ति के नाश ने भी भारत को निवेश के एक बेहतर देश के रूप में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच संदिग्ध बना दिया है। आप कह सकते हैं कि इन तीनों घटनाओं ने नरेन्द्र मोदी द्वारा भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि चमकाने के प्रयासों पर पानी फेर दिया है।

नरेन्द्र मोदी की अपनी खुद की छवि को भी नुकसान हुआ है, क्योंकि रोहित वेमुला प्रकरण में वे केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के साथ मजबूती से खड़े हैं। स्मृति ईरानी के प्रति लोगों का गुस्सा अब नरेन्द्र मोदी की ओर मुखातिब होने लगा है, जिसका एक नतीजा बिहार में देखने को मिला, जहां करीब 40 किसानों ने अपने खेत में मोदी की सभा कराने के भाजपा और जिला प्रशासन के निर्णय के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और प्रधानमंत्री मोदी की सभा का स्थल बदलना पड़ा। गौरतलब हो कि मोदीजी आजकल किसान कल्याण रैलियों को संबोधित कर रहे हैं। उनके लिए इससे खराब और क्या बात हो सकती है कि उनकी किसान रैली को किसान अपने खेत में होने देने से रोकें।

नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के घटते प्रभाव का एक नतीजा उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला है। वहां 36 विधान पार्षदों (एम एल सी) के चुनाव के लिए मतदान हुए, जिनमें भाजपा का खाता तक नहीं खुला। सत्ता में होने का लाभ उठाते हुए समाजवादी पार्टी ने तो 30 सीटों पर कब्जा कर लिया, पर कांग्रेस और बसपा को भी दो दो सीटें मिलीं और एक सीट पर निर्दलीय जीता, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली। इन चुनावों के मतदाता स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि थे।

चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में विधानसभा के आमचुनाव हो रहे हैं। उनमें असम में भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने की उम्मीद कर रही है और पश्चिम बंगाल में करीब दो दर्जन विधायक जिताने का मंसूबा भी पाल रही है, लेकिन रोहित वेमुला और कन्हैया प्रकरण उसकी इन आशाओं पर पानी फेर सकता है। (संवाद)