सवाल उठता है कि क्या इन चुनावों के नतीजों से केन्द्र की राजनीति प्रभावित होगी? उनका राष्ट्र की राजनीति पर क्या असर होगा? खासकर भारतीय जनता पार्टी पर इसका क्या असर पड़ेगा?

पिछले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। उस हार ने नरेन्द्र मोदी के जादू पर सवाल खड़ा कर दिया था। लोकसभा चुनाव की जीत के बाद भी राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने जीत का एक सिलसिला जारी कर रखा था। वह सिलसिला दिल्ली चुनाव में हार के बाद टूट गया।

दिल्ली चुनाव के बाद बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए। उसमें भी भारतीय जनता पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। उस हार के बाद भारतीय जनता पार्टी को इस साल मौका मिला है कि वह हार के सिलसिले को समाप्त करे।

कांग्रेस के लिए भी ये चुनाव एक मौका दे रहे हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस की हार का सिलसिला बदस्तूर जारी था। बिहार में उसे थोड़ी राहत मिली, जहां दो मजबूत पार्टियों के साथ गठबंधन कर उसने 27 सीटें हासिल कर लीं। लेकिन उस जीत का कोई राजनैतिक महत्व नहीं था, क्योंकि वह कांग्रेस की जीत ही नहीं थी।

इस बार कांग्रेस को अपनी हार के सिलसिले को रोकने की असली चुनौती मिली है। पांच राज्यों में से दो में उसकी सरकार है। एक में तो वह मोर्चे की सरकार का नेतृत्व कर रही है, जबकि दूसरे में उसके पास अपनी बहुमत वाली सरकार है।

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच असली मुकाबला असम में ही होना है। सच कहा जाय, तो भारतीय जनता पार्टी को यदि कहीं अधिक गंभीर होकर चुनाव लड़ना है, तो वह असम ही है। वहां लोकसभा चुनाव में उसे शानदार सफलता मिली थी। 14 लोकसभा सीटों में से 7 पर उसकी जीत हुई थी।

भारतीय जनता पार्टी के लिए असम कितना महत्वपूर्ण है, इसका पता इसीसे लगता है कि उसने वहां इस बार गठबंधन करने का फैसला किया है। असम गण परिषद और बोडो पीपल्स फ्रंट के साथ उसका गठबंधन हो चुका है। दो अन्य छोटी पार्टियों के साथ भी उसका गठबंधन हो रहा है। मोर्चेबंदी कर वह कांग्रेस की सरकार को हराना चाह रही है। कांग्रेस की तरुण गोगाई सरकार वहां पिछले 15 साल से सत्ता में है और इस बार फिर गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भी वहां एक मजबूत पार्टी है। उसके 19 विधानसभा सदस्य अभी हैं। लोकसभा चुनाव में भी उसे तीन सीटों पर जीत हासिल हुई थी। संभावना यह है कि कांग्रेस के साथ कभी न कभी उसका गठबंधन हो सकता है।

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने वाम मोर्चा से तालमेल बैठाया है। वह वहां अपनी स्थिति किसी भी सूरत में बेहतर करना चाहती है। वाम मोर्चा भी कांग्रेस के साथ संबंधों की पुरानी कड़वाहट को भूलकर अपनी स्थिति वहां बेहतर करना चाहता है। तृणमूल कांग्रेस के साथ इस गठबंधन का मुकाबला होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह गठबंधन कौन सा रंग दिखाता है। लेकिन इस समय तो तृणमूल कांग्रेस की स्थिति अभी भी सरकार बनाने लायक मजबूत दिखाई दे रही है।

केरल में कांग्रेस और सीपीएम के नेतृत्व वाले मोर्चे एक बार फिर आमने सामने होंगे। दोनों मोर्चे बारी बारी से पिछले कई दशकों से वहां सरकार बना रहे हैं। इस बार बारी सीपीएम के नेतृत्व वाले मोर्चे की है।

तमिलनाडु में इस समय जयललिता की सरकार है और हमेशा की तरह करुणानिधि उनके सामने एक बार फिर चुनौती पेश कर रहे हैं। पर वहां की तीसरी सबसे मजबूत पार्टी डीएमडीके द्वारा करुणानिधि के गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकरा दिए जाने के बाद जयललिता की स्थिति मजबूत दिखाई पड़ रही है। वहां कांग्रेस ने करुणानिधि के साथ समझौता कर लिया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने के लिए वहां कोई तैयार नहीं है। जाहिर है, उसे वहां अकेले चुनाव लड़ना पड़ रहा है। (संवाद)