अब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी विजय माल्या पर मनी लॉन्डरिंग का मामला दर्ज किया है, तो डेट रिकवरी ट्राब्यूनल (डीआरटी) ने 515 करोड की निकासी पर रोक लगवा दी है। जो भी हो, माल्या देश में बैंकों को चूना लगाने के खेल का पोस्टर ब्वॉय बन गए हैं। हालांकि इस मामले में उनसे कहीं ज्यादा बडे खिलाडी बेखौफ घूम रहे हैं। बैंक और सरकारी एजेंसियां इस मामले में जितना मुस्तैद दिखने की कोशिश कर रही हैं, अन्य मामलों में उनका रवैया उतना ही लचर दिखाई पड रहा है। बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानो को उदारतापूर्वक ऋण देने और फिर दरियादिली दिखाते हुए उन्हें माफ कर देने में बैंकों के साथ सरकार का भी पूरा तालमेल रहा है।

बहरहाल, विजय माल्या का ब्रिटेन पहुंच जाना देश के उन सरकारी बैंकों के लिए तगड़ा झटका है जो उनसे अपने हजारों करोड़ रुपए की ऋण वसूली की आस लगाए बैठे थे। हैरानी की बात है कि उनके भारत से बाहर जाने का पता भी तब लगा जब सुप्रीम कोर्ट से कर्जदाता बैंकों ने विजय माल्या का पासपोर्ट जब्त करने और सुनवाई के लिए खुद हाजिर होने का निर्देश देने की अपील की। माल्या को किसी भी जांच एजेंसी ने विदेश जाने से नहीं रोका। जब सीबीआई ने उनकी विदेश यात्रा पर रोक लगाने के लिए अदालत से अनुरोध किया तो अटार्नी जनरल ने बताया कि विजय माल्या तो पहले ही भारत छोड़ कर जा चुके हैं। गौरतलब है कि माल्या पर भारतीय स्टेट बैंक सहित देश के सत्रह बैंकों का नौ हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज बकाया है। विजय माल्या राज्य सभा के निर्दलीय सदस्य भी हैं, लिहाजा उनका मामला राज्य सभा की आचार समिति के समक्ष विचार के लिए पेश किया गया है।

विजय माल्या अपने विलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए कुख्यात हैं और किसी भी तरह के विवाद से उनके माथे पर शिकन तक नहीं आती। अपनी बेलगाम शाहखर्ची, रंगीली फितरत और चकाचैंध भरी जीवनशैली के चलते माल्या ऋणदाताओं और निवेशकों को अपनी कंपनी की माली हकीकत से बेखबर रखने में कामयाब होते रहे। माल्या का मामला देश में उदारीकरण के दौरान व्यावसायिक घरानों की लूट के प्रति हमारे समूचे वित्तीय तंत्र की बेहिसाब उदारता की एक बेहद अफसोसनाक मिसाल है। किगफिशर एअरलाइंस बढ़ते घाटे के कारण लगातार डूबती रही लेकिन जाने-माने बैंको ने इसके बहीखातों की गहन पड़ताल किए बगैर उदारतापूर्वक हजारों करोड़ रुपए का ऋण दे दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि आखिर इतना कर्ज दिया ही क्यों था, तो उनका हास्यास्पद जवाब है कि किगफिशर की ’ब्रांड वैल्यू’ और उसके विमानों को देखते हुए यह कर्ज दिया गया था। बैंक चाहे जो दलील दे, लेकिन हकीकत यह है कि जिस समय माल्या की कंपनी को कर्ज दिया गया उस समय उनकी किगफिशर एयरलाइंस लगातार घाटे में चल रही थी। किगफिशर बियर के नाम की तो कुछ साख है भी लेकिन एयरलाइंस की साख तो बहुत पहले ही खाक में मिल चुकी थी। तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या किसी कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन और भविष्य की योजनाओं को परखे बगैर कथित ’ब्रांड वैल्यू’या तामझाम पर रीझ कर ऋण-वर्षा कर देने को उचित ठहराया जा सकता है?

यह तो बैकिग प्रणाली के बुनियादी तकाजों-एहतियातों के सर्वथा विपरीत है जिसके लिए कर्जदार के साथ कर्जदाता भी बराबर के दोषी ठहराए जाने चाहिए। सवाल है कि क्या उन बैंक अधिकारियों की शिनाख्त करके उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी जिन्होंने विजय माल्या और उनके जैसे अन्य उद्योगपतियों को हजारों करोड रुपए बतौर कर्ज दे दिए? बैंकांे के साथ ही कर्ज वसूली न्यायाधिकरण, प्रवर्तन निदेशालय या सीबीआई भी माल्या पर शिकंजा कसने में देरी के दोष से बरी नही हो सकते। जब यह तथ्य जगजाहिर हो चुका था कि किगफिशर पर बकाया कर्ज की वसूली जनवरी 2012 से नहीं हो रही है, तो ये सारे महकमे चार साल तक क्यों सोते रहे? इन्हें मनी लॉन्डरिंग या विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के तहत मामले दर्ज करने या किसी विशेष रकम की निकासी पर रोक लगाने की सुध अब आई है जब माल्या पकड़ से दूर जा चुके हैं।

विजय माल्या पर सरकारी बैंकों की इतनी बड़ी राशि बकाया होने की खबर ने भारतीय लोकतंत्र की इस विसंगति को एक बार फिर उजागर कर दिया है कि यहां कुछेक हजार या लाख रुपये का कर्ज न चुका पाने पर किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है, मध्यवर्ग के व्यक्ति को जेल हो जाती है और कर्ज के रुपयों से लगाया गया छोटा-मोटा कारखाना या खरीदा गया मकान, कार या बाईक जब्त कर ली जाती है लेकिन कानून अपने हाथ बहुत लंबे होने के बावजूद विजय माल्या और उन जैसे धनपतियों और रसूखदार लोगों को छू तक नहीं पाता। ज्यादा वक्त नहीं बीता है, इसी तरह का एक मामला क्रिकेट कारोबारी ललित मोदी का सामने आया था जिसमें राजनेताओं और नौकरशाहों से उसकी अंतरंगता उजागर हुई थी।

विजय माल्या ने संकेत दिया है कि वह तब तक भारत नहीं लौटेंगे जब तक कि स्थिति सामान्य’ नही हो जाती। इसका स्पष्ट मतलब है कि जब तक उनके सिर पर कर्ज और उसके मिलने के तौर-तरीकों की जांच की तलवार लटकी है, तब तक वे ब्रिटेन में ही रहेंगे या वहां से किसी अन्य देश चले जाएंगे और भारत तथा उसके कानून को ठेंगा दिखाते रहेंगे। उनकी सीनाजोरी तो देखिए- वे अपने सांसद होने का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि उन्हें भगोड़ा नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब वे भारत से ब्रिटेन के लिए रवाना हुए थे, तब तक उनके लिए जांच एजेंसियों की ओर से किसी प्र्रकार का समन या अन्य कोई निर्देश जारी नहीं हुआ था।

दरअसल, इस समय भारतीय बैकिग व्यवस्था के सामने उद्योगपतियों से उनको दिए गए कर्जों की वसूली न पाने की समस्या बेहद विकराल हो चुकी है। वर्ष 2013 से 2015 के बीच 29 सरकारी बैंकों ने 1140 अरब रुपये के कर्ज इसलिए डूबत खाते में डाल दिए कि उनके लौटाए जाने की कोई संभावना नहीं बची थी। इसके बाद भी स्थिति जस-की-तस बनी हुई है। इतना सब होने के बावजूद रिजर्व बैक भी इस मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठा है। इस बात की जांच नहीं की जा रही है कि वरिष्ठ बैंक अधिकारियों ने आखिर किस आधार पर बार-बार उन्हीं उद्योग समूहों को अरबों रुपये के कर्ज कैसे दे दिए जिन्होंने पहले के कर्जों की अदायगी नहीं की थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि है कि इस तरह के मामलों में राजनीतिक नेता, बैंक अधिकारी, जांच एजेंसियों के अधिकारी आदि सभी शामिल है। यह जनता के साथ विश्वासघात है, उसकी अमानत में खयानत है, क्योंकि जनता बैंकों पर भरोसा करके अपना धन उनके पास जमा करती है। यदि बैंक उसके इस विश्वास के साथ खिलवाड़ करेंगे तो बैंकिग व्यवस्था पर से लोगांे का भरोसा ही उठ जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद घातक होगा।

बात सिर्फ कुछ बैंक और जांच एजेंसियों के अधिकारियों की जवाबदेही पर ही खत्म नहीं हो जाती। विजय माल्या के मामले की वजह से भारतीय राजनीति, संसद में प्रवेश की प्रक्रिया और उससे जुड़े अनेक नैतिक सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। माल्या जैसे अय्याश रईस को भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समेत अनेक पार्टियां अपने वोट दिलवा कर राज्य सभा का सदस्य क्यों बनवाती हैं, इस सवाल की अनदेखी नहीं की जा सकती। साथ ही यह भी विचारणीय बिन्दु है कि ऐसे उद्योगपति किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संसद का सदस्य बनना चाहते हैं और बनने के लिए आकाश-पाताल क्यों एक कर देते हैं। विजय माल्या प्रकरण राजनीतिक सत्ता, अफसरशाही और पूंजी के अनैतिक और आपराधिक गठजोड़ की जीती जागती मिसाल है। (संवाद)