संघ के उस प्रस्ताव के बाद दलितों और आदिवासियों में चिंता की लहर एक बार और फैल गई है। उन्हें लगता है कि आरएसएस ओबीसी की तरह एससी और एसटी में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान करने की बात कर रही है। ओबीसी में तो पहले ही संपन्न लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि ओबीसी में जो संपन्न लोग हैं, उनकी पहचान कर उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया जाय। उस आदेश के अनुसार क्रीमी लेयर का एक पैमाना तैयार किया गया है और उस पैमाने पर आने वाले लोगों को आरक्षण नहीं दिया जाता।

अनुसूचित जातियों और जनजातियों में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान लागू करने की मांग उठती रहती है। यही कारण है कि संघ के लोग कहते हैं कि जिसे एक बार आरक्षण मिल गया, तो दूसरी बार उस परिवार के व्यक्ति को आरक्षण नहीं दिया जाय, तो दलितों और आदिवासियों के काम खड़े हो जाते हैं। आरक्षण की समीक्षा करने की जब बात होती है, तो भी वे चिंतित हो जाते हैं। आरक्षण विरोधी आंदोलन जब होता है, तब भी उन्हें लगता है कि उस आंदोेेेेेेेेेेलन का बहाने उन्हें मिल रही आरक्षण व्यवस्था को कमजोर किया जा सकता है।

मोदी सरकार के गठन के बाद ये दोनों बातें हो रही हैं। संघ के नेता जबतब आरक्षण की समीक्षा की बात कर रहे हैं। और उधर आरक्षण विरोधी आंदोलन ने एक नया रूप अख्तियार कर लिया है। वह रूप है सशक्त और संपन्न जातियों द्वारा खुद के लिए आरक्षण की मांग का आंदोलन। देखने में वह आंदोलन आरक्षण के लिए लगता हे, लेकिन उसकी मूल प्रकृति आरक्षण विरोध की है, क्योंकि यदि सशक्त और संपन्न लोगों को कमजोर वर्गों के साथ एक ही सूची में डाल दिया जाय, तो फिर कमजोर लोग तो प्रतियोगिता से बाहर ही हो जाएंगे। आरक्षण का प्रावधान जिन लोगों की प्रतियोगिता से बचने के लिए किया गया है, यदि उन्हीं लोगों को आरक्षण के दायरे में लाया गया, तो फिर कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रहा। लिहाजा, गुजरात का पाटिदार आंदोलन, हरियाणा का जाट आंदोलन और आंध्र प्रदेश का कापू आंदोलन अपने मूल में आरक्षण विरोध का आंदोलन है। अब वे सीधे सीधे आरक्षण का विरोध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने भी आरक्षण की व्यवस्था को संवैधानिक घोषित कर दिया है और एक समय आरक्षण का विरोध करने वाली पार्टियां भी अब आरक्षण का विरोध कर नहीं पातीं।

आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग, आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा और सशक्त जातियों द्वारा आरक्षण की मांग करते हुए आंदोलन चलाना आज की राजनीति का मुख्य एजेंडा बनता जा रहा है और ये तीनों सत्तारूढ़ संगठनों के संरक्षण में ही हो रहा है। आरक्षण के लिए आंदोलन या तो भाजपा शासित राज्यों में हो रहे हैं या भाजपा के मित्र दलों के शासन वाले राज्यों में हो रहे हैं। इससे संकेत जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी उस आंदोलन को प्रश्रय दे रही है और उनके खिलाफ समय रहते कोई कड़ा कदम नहीं उठाती है। हरियाणा में तो अजब हो गया। वहां हजारों करोड़ो रुपये की संपत्ति जला दी गई और पुलिस को मूकदर्शक बने रहने का आदेश दिया गया था। हरियाणा जलता रहा और सरकार के आदेश पर पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब गैरजाट भी निकलकर आंदोलनकारी जाटों के खिलाफ सड़कों पर आ गए और दंगे होने लगे, तब जाकर पुलिस हरकत में आई।

उधर हरियाणा जल रहा था था और कोलकाता में आरएसएस के प्रमुख उस हिंसा का हवाला देते हुए कह रहे थे कि इस तरह की घटना को रोकने के लिए आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा जरूरी है। इस तरह के बयानों से ओबीसी ही नहीं, बल्कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के बीच में यह संदेश जा रहा है कि उनकी आरक्षण व्यवस्था बहुत सुरक्षित नहीं है।

नरेन्द्र मोदी अपने को अम्बेडकर भक्त घोषित कर दलितों और आदिवासियों में व्याप्त भय को दूर करना चाहते हैं। सवाल उठता है कि आप उस तरह का भय उनमें आने की क्यों देते हैं? संघ के नेता जब आरक्षण पर भ्रम फैलाते हैं, तब तो प्रधानमंत्री तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। वे प्रतिक्रिया देने के लिए कुछ खास मौकों का इंतजार करते हैं। जैसे यह अम्बेडकर स्मारक के शिलान्यास का मौका था और इसे आप पांच राज्यों मंे होने वाले चुनाव का मौका भी कह सकते हैं। दिल्ली में उस स्मारक का शिलान्यास मोदी जी ने उस समय किया, जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित हो चुकी हैं और उन राज्यों में चुनावी आचार संहिता भी अमल में आ गई हैं। इधर दिल्ली में प्रधानमंत्री अम्बेडकर स्मारक का शिलान्यास कर और अपने को अम्बेडकर भक्त घोषित कर उन राज्यों में आरक्षण समर्थकों के बीच अपनी छवि बेहतर करने में लगे हुए हैं।

सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री इस तरह की बयानबाजी से अपनी पार्टी की पैठ दलितों में करा सकते हैं? इसका सकारात्मक जवाब देना कठिन है, क्योंकि दलितों में जो शिक्षित और अर्दधशिक्षित वर्ग है, वह भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस को दलित हितैषी नहीं मानता। वह वर्ग मनुस्मृति का विरोधी है, जबकि मोदी सरकार आने के बाद मनुस्मृति के पक्ष में आक्रामक अभियान चलाए जा रहे हैं। रोहित वेमुला की मौत से भी दलित समुदाय दहल गया है और भाजपा को लेकर आशंकित हो गया है, हालांकि उनकी आशंका को दूर करने के लिए केन्द्र सरकार यह अभियान चला रही है कि वेमुला दलित था ही नहीं, लेकिन वह अभियान भी काम नहीं कर रहा है। अम्बेडकर का स्मारक और अम्बेडकवादी वेमुला की मौत परस्पर विरोधाभाषी है। यह विरोधाभास भाजपा को दलितों में पैठ दिलाने में बाधा पैदा करता रहेगा। (संवाद)