भाजपा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि जब राज्यपाल ने रावत सरकार को अपना बहुमत साबित करने के लिए 28 मार्च का समय दे रखा था और उस दिन रावत सरकार अपना बहुमत साबित करने के लिए तैयार बैठी थी, तो फिर उसके ठीक एक दिन पहले ही विधानसभा को क्यों निलंबित कर दिया गया और हरीश रावत की सरकार को क्यों बर्खास्त कर दिया गया? केन्द्र सरकार और भाजपा का कहना है कि 18 मार्च को ही वह सरकार गिर चुकी थी, क्योंकि उस दिन कांग्रेस के 9 विधायकों का बजट बिल को समर्थन नहीं मिला था। पर सवाल यह है कि यदि वास्तव में विधानसभा में बजट बिल पराजित हो गया था और स्पीकर ने पराजित बिल को पारित घोषित कर दिया था, तो फिर राज्यपाल ने उस सरकार को फिर से विधानसभा का विश्वास प्राप्त करने को क्यों कहा? उस दिन या उसके अगले दि नही राज्यपाल ने वहां राष्ट्रपति शासन की सिफारिश क्यों नहीं की? जाहिर है, राज्यपाल विधानसभा की बजट को पारित करने वाली कार्रवाई से संतुष्ट थे।
स्ंविधान कहता है कि यदि कोई मनी बिल विधानसभा में पराजित हो जाता है, तो बिल पेश करने वाली ने सदन का विश्वास खो दिया है। जब उस रोज रावत सरकार विधानसभा का विश्वास खो चुकी थी और अस्तित्वहीन हो गई थी, तो फिर एक अस्तित्वहीन सरकार को विधानसभा में दुबारा विश्वासमत हासिल करने के लिए क्यों कहा गया और उसके लिए 10 दिनों का समय क्यों दिया गया? इस सवाल का जवाब न तो राज्यपाल के पास है और न ही केन्द्र सरकार के पास है। वह कह रही है कि अपनी सरकार बचाने के मुख्यमंत्री विधायको की खरीद फरोख्त कर रहे थे और उसके लिए एक सीडी को सबूत के रूप में पेश किया जा रहा है। वह सीडी सही है या फर्जी, इसे भी आनन फानन में तय कर दिया गया और कहा गया कि एक फोरंेसिक लैब ने उसे सही पाया। पर सच्चाई यह है कि उस तरह के टेप के असली या नकली होने की जांच उन लोगों की आवाज का सैंपल लेकर की जाती है, जो बातचीत में शामिल है। पर मुख्यमंत्री हरीश रावत की आवाज का सैंपल लिए बिना ही तय कर दिया गया कि वह बातचीत सही है। और क्या उस तरह की सीडी का इस्तेमाल करके किसी सरकार को बर्खास्त किया जा सकता है?
18 मार्च को बजट पर हुए मतदान को ही राष्ट्रपति शासन लगाने का मुख्य आधार बनाया गया है। लेकिन यदि उसे आधार बनाकर ही राष्ट्रपति शासन लगाना था, तो वह काम 19 मार्च को ही कर दिया जाना चाहिए था और यदि राज्यपाल ने उस सरकार को अपना बहुमत साबित करने के लिए 28 मार्च तक का समय दिया, तो 28 मार्च को ही सदन में सरकार को शक्ति परीक्षण करने दिया जाना चाहिए था।
वेमुला और कन्हैया प्रकरण में अपनी हालत खराब कर चुकी भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड में अपनी स्थिति दयनीय बना डाली है। अगले साल फरवरी महीने में वहां विधानसभा का चुनाव होना ही था। कांग्रेस सरकार के खिलाफ लोगांे में असंतोष और उसके आंतरिक कलह का इस्तेमाल कर भारतीय जनता पार्टी वहां अपनी सरकार भी बना सकती थी, लेकिन चुनाव के कुछ महीने पहले इस तरह की हरकतें कर उसने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है। हरीश रावत को जिस तरह हटाया गया, उससे उनके प्रति लोगों की सहानुभूति बढ़ गई है और भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी लोगांे के सामने आ गई है। भारतीय जनता पार्टी यह भी दावे के साथ नहीं कह सकती कि वह हरीश रावत सरकार को हटाकर खुद की सरकार बना लेगी, क्योंकि कांग्रेस के वे नौ विधायक, जिनके भरोसे भाजपा राजनीति कर रही है, खुद ही अपनी सदस्यता गंवा बैठे हैं। हालांकि उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष के उस निर्णय को अदालत में यह कहते हुए चुनौती दी है कि उनकी सदस्यता राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद समाप्त की गई है, लेकिन अदालत से यदि उन्हें कोई राहत मिल भी जाती है, तो वह बहुत ही अस्थाई राहत होगी, क्योंकि उन्होंने दलबदल कानून के तहत अपनी सदस्यता खोने का पूरा आधार खुद तैयार कर लिया है।
भाजपा द्वारा खेले गए उत्तराखंड के राजनैतिक खेल से राजग में उनके अपने सहयोगी दल भी नाराज हैं। शिवसेना ने तो उसके लिए भाजपा की निंदा तक कर डाली है और अकाली दल ने भी उस पर अपनी नाखुशी जाहिर की है। मामला अदालत में है और अदालती सवालों का सही सही जवाब देने में केन्द्र सरकार अक्षम है।
अदालत में तो उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासल लगाने के केन्द्र के निर्णय को चुनौती दी ही जा रही है, उस निर्णय को संसद से पास कराना भी भाजपा के लिए असंभव होगा। उसे दोनों सदनों से पास कराना होगा। लोकसभा में तो उसे कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन राज्यसभा में उसे बहुमत नहीं प्राप्त है और वहां उसके इस निर्णय का पराजित होना लगभग तय है। अपने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल को समर्थन भी शायद राज्यसभा में उसे नहीं मिले, क्योंकि ये क्षेत्रीय दल धारा 356, जिसके तहत चुनी हुई राज्य सरकार को गिरा कर राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, के खिलाफ रहते हैं। (संवाद)
उत्तराखंड का राजनैतिक संकट
भाजपा ने की एक और चूक
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-04-01 10:47
उत्तराखंड में चल रही राजनैतिक अस्थिरता का अंत होता अभी दिखाई नहीं पड़ रहा है। जब कभी इसकी विधानसभा के आमचुनाव होंगे, उसके बाद ही इस अस्थिरता का अंत हो पाएगा। इसमें कोई दो मत नहीं कि भारतीय जनता पार्टी ने इस अस्थिरता को हवा दी है और इसके कारण आज सबसे ज्यादा फजीहत उसी की हो रही है। वह सफाई दे रही है कि इस समस्या के लिए कांग्रेस का आंतरिक कलह जिम्मेदार है। यह आंशिक रूप से ही सही है। कांग्रेस में आंतरिक कलह है और कोई नया नहीं है। पिछली विधानसभा का चुनाव जीतकर जब कांग्रेस सत्ता में आई थी, कलह उस समय भी थी। जब विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया, उस समय कलह और तेज हो गई। लेकिन उस समय तो वह राजनैतिक बवंडर खड़ा नहीं हुआ, जो आज हुआ है। अंतर यह है कि आज भारतीय जनता पार्टी उस कलह का इस्तेमाल कर कांग्रेस की सरकार को वहां गिरा चुकी है और वैसा करके उसने अपने आप को राजनैतिक रूप से थोड़ा और कुख्यात कर लिया है।