उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस की जीत के अनुमान लगाए जा रहे हैं। ममता बनर्जी के लिए वह अनुमान सकून देने वाला है, लेकिन वामपंथियों को भी उन सर्वे अनुमान से राहत मिल रही है, हालांकि अनुमान के अनुसार उन्हंे अभी विपक्ष की भूमिका ही वहां निभानी है।

इसका कारण यह है कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस से वामपंथी काग्रेस गठबंधन के वोट बहुत ज्यादा कम नहीं हैं। अनुमान के अनुसार तृणमूल कांग्रेस को वहां 40 फीसदी मत मिल रहे हैं, तो वाम कांग्रेस गठबंधन को 39 फीसदी, जिनमें 31 वाम मोर्चे का है, तो 8 फीसदी कांग्रेस का।

इससे यह भी पता चलता है कि पिछले 5 सालों मे बंगाल के मतदाताओं के रुझान में फर्क नहीं आया है। 2011 में तृणमूल कांग्रेस को 39 दशमलव 8 फीसदी मत मिले थे, जबकि कांग्रेस को 8 दशमलव 9 फीसदी। वाम मोर्चा को तब 30 फीसदी मत मिले थे। फर्क यह था कि उस समय कांग्रेस का तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन था और इस बार कांग्रेस का वाम मोर्चा के साथ गठबंधन है।

कांग्रेस और तृणमूल के बीच उस समय गठबंधन होने के कारण 30 फीसदी मत पाने के बावजूद जीती गई सीटों की संख्या के लिहाज से वाम पार्टियों का प्रदर्शन बहुत बुरा था। पर चूंकि इस बार गठबंधन कांग्रेस और वाम पार्टियों के बीच में है, इसलिए वाम दलों की सीट संख्या काफी बढ़ जाने का अनुमान है। एक सर्वे ने तो अपने अनुमान में बताया है कि वाम मोर्चे की पार्टियों को 106 सीटें मिल सकती हैं और कांग्रेस को 21 सीटें।

यही कारण है कि इस बार पश्चिम बंगाल में चुनाव हारने वाले वाम मोर्चे को भी खुश होने के आसार हैं। इसका एक कारण यह भी है कि पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने वाली तृणमूल कांग्रेस से उसका मुख्य विरोधी गठबंधन मात्र 40 सीटें कम पाता ही दिखाई पड़ रहा है।

इस नतीजे का सबसे सकारातमक पहलू वामपंथी नेताओं के लिए यह होगा कि एक बार फिर उन्हें उनकी आवाज मिल जाएगी।

2008 में जब वामपंथी पार्टियों ने अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर कांग्रेस के साथ अपना सहयोग समाप्त कर दिया था और उसके बाद चुनावों में उसकी करारी हार हुई थी, तो अमत्र्य सेन ने कहा था कि वामपंथियों ने भारत में अपनी आवाज खो दी है। वह सच भी था, क्योंकि उसके बाद देश की राजनीति में वामपंथी हाशिए पर चले गए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद तो वे हाशिए की ओर थोड़ा और आगे बढ़ गए थे।

2004 में सीपीएम के पास लोकसभा की 43 सीटें थीं, जो 2009 में घटकर 16 रह गई थी। उसी तरह सीपीआई के पास 2004 में लोकसभा की 10 सीट थी, जो 2009 में घटकर 4 हो गई थी।

2014 में तो उनकी स्थिति और भी खराब हो गई। इसमें सीपीएम को मात्र 9 सीटें ही मिलीं और सीपीआई तो एक पर खिसक गई।

वाम मोर्चे की इस दुर्गति के लिए प्रकाश कारत को जिम्मेदार बताया जा रहा है, जिनकी कठोर नीतियों के कारण यह दुर्दशा हुई। उन्होंने सोमनाथ चटर्जी तक को पार्टी से निकाल दिया था।

इस बार वाममोर्चे को न केवल पश्चिम बंगाल में ज्यादा सीटें मिलती दिख रही हैं, बल्कि केरल में तो उसकी सरकार तक बन सकती है। साफ है कि वाममोर्चा एक बार फिर प्रासंगिक होता दिखाई दे रहा है। (संवाद)