इसे विडंबना ही कहेंगे कि जनता दल(यू) का गठन दो राष्ट्रीय पार्टियों के विलय से हुआ और विलय के बाद यह एक क्षेत्रीय दल है, जिसे सिर्फ बिहार में ही मान्यता मिली हुई है। जनता दल में भाजपा के मसले पर हुए विभाजन के बाद जनता दल (यू) पहली बार अस्तित्व में आया था। उस समय विभाजित दल और समता पार्टी आपस में मिले थे। समता पार्टी के अध्यक्ष जाॅर्ज फर्नांडीस थे और जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव ही थे। उस समय दोनों दल राष्ट्रीय हैसियत वाले दल थे। वह विलय 1999 में हुआ था। 2000 में समता पार्टी जनता दल(यू) से अलग हो गई थी, क्योंकि नीतीश कुमार को शरद यादव की मंशा को लेकर कुछ आशंका हो गई थी। 2000 का बिहार विधानसभा चुनाव समता पार्टी ने अपने चुनाव चिन्ह पर लड़ा था। पर कुछ सालों के बाद फरवरी 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले समता पार्टी का एक बार फिर विलय जनता दल(यू) में हो गया। इस बार जनता दल(यू) के अध्यक्ष जाॅर्ज फर्नांडीस बनाए गए। गौरतलब हो कि 1999 में जब समता पार्टी का विलय विभाजित जनता दल में होने के बाद जनता दल(यू) बना था, तो अध्यक्ष शरद यादव ही थे। लेकिन दूसरी बार समता पार्टी के विलय के बाद अध्यक्ष का पद जाॅर्ज के पास गया।

नीतीश के बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद जनता दल (यू) के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए, जिसमें शरद यादव और जाॅर्ज आमने सामने थे। नीतीश ने शरद यादव का साथ दिया और वे जनता दल(यू) के एक बार और अध्यक्ष बन गए। यह 2006 की घटना है। 10 साल के बाद उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और इस तरह नीतीश कुमार के पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया। वैसे कायदे से पार्टी के संविधान के अनुसार कोई लगातार दो कार्यकाल तक ही पार्टी का अध्यक्ष रह सकता है। नियमों मे संशोधन कर शरद यादव को तीसरी बार अध्यक्ष बना दिया गया था। यदि इस बार सहमति होती, तो नियमांे में और संशोधन कर उन्हें चैथी बार पर अध्यक्ष बनाया जा सकता था, लेकिन दल ने और शायद खुद शरद यादव ने भी यही सोचा कि अब अध्यक्ष बदला जाना चाहिए।

अब पार्टी अध्यक्ष बनकर नीतीश कुमार की कोशिश जनता दल(यू) के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने की होगी। अभी तो यह बिहार तक ही सिमट कर रह गया है। बिहार से ही निकले पड़ोसी झारखंड में भी इसका एक भी विधायक नहीं है। पार्टी के विस्तार के लिए लोगों को इससे जोड़ने होगा और कुछ दलों को भी जोड़ा जा सकता है। अभी जनता दल(यू) के साथ उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय लोकदल और अपना दल के एक गुट को जोड़े जाने की चर्चा है। झारखंड के नेता बाबूलाल मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा (लोकतांत्रिक) भी उससे जुड़ने वाला है। कोशिश हरियाणा में चैटाला के दल को जोड़ने की भी हो रही है। कमल मुरारका की समाजवादी जनता पार्टी भी इससे जुड़ रही है। कर्नाटक के जनता दल (सेकुलर) से भी बात चली थी, लेकिन फिलहाल वहां से कोई उत्साहजनक खबर नहीं मिल रही है। दल के नेता कभी कभी उड़ीसा के बीजू जनता दल को भी जोड़ने की सोचने लगते हैं।

जाहिर है, नीतीश कुमार की पहली चुनौती तो उन दलों को आपस में जोड़ने की होगी, जो कभी जनता दल के हिस्से हुआ करते थे। उनमें एक दल को बिहार का राष्ट्रीय जनता दल ही है, जिसके साथ गठबंधन कर नीतीश ने सत्ता हासिल की है। वह दल फिलहार नीतीश के दल से विलय करने के मूड में नहीं है। दूसरा दल मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी है। वह भी किसी जनता परिवार की अवधारणा से बाहर हो गई है, हालांकि एक समय उसके नेता को ही एकीकृत अनामी जनता परिवार के दल का अध्यक्ष घोषित कर दिया गया था।

जनता दल से निकले दलों को आपस में विलय कराने की चुनौती के साथ साथ अन्य भाजपा विरोधी दलों के साथ साझा मंच विकसित करना नीतीश की एक दूसरी चुनौती होगी। भाजपा विरोधी पार्टियों मंे आपस में भी बहुत मतभेद हैं। सबसे बड़ी भाजपा विरोधी पार्टी कांग्रेस है और कांग्रेस को अनेक राज्यों में भाजपा विरोधी पार्टियों के खिलाफ भी चुनाव लड़ना पड़ता है। उसे कहीं वामदलों के खिलाफ चुनाव लड़ना पड़ता है, तो कहीं ममता बनर्जी के खिलाफ, तो कहीं नवीन पटनायक के खिलाफ। इसके कारण सभी भाजपा विरोधी पार्टियों को एक साथ साझा मंच पर लाना पहली चुनौती से भी बड़ी है।

दलों में विलय, एकता और मोर्चेबंदी के अलावा नीतीश कुमार को देश के सामने नये कार्यक्रमों के साथ भी आना पड़ेगा। देश की अधिकांश पार्टियों और नेताओं ने जनता के सामने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। उनकी विश्वसनीयता खोने के कारण ही केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी। लोगों में नरेन्द्र मोदी के प्रति एक उत्साह था और उन्हें लग रहा था कि श्री मोदी देश की सभी समस्याओं का समाधान कर देंगे। लेकिन आज लोग मोदी से भी निराश हो रहे हैं। नीतीश के लिए अच्छी बात यह है कि उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता अभी भी बनी हुई है। नरेन्द्र मोदी से लोगों के मोह भंग होने के बाद देश के लोगों का उनसे मोह बन सकता है, लेकिन इसके लिए उन्हें लोगों के सामने अपने कार्यक्रमों को साफ साफ रखना होगा। उनकी यह चुनौती पहले बताई गई दोनों चुनौतियों से भी बड़ी है। (संवाद)