मोदी सरकार अंबेडकर की 125वीं जयंती को देश भर में बहुत धूमधाम के साथ मना रही हैं। प्रधानमंत्री खुद अंबेडकर के जन्मस्थान महू में एक रैली को संबोधित कर चुके हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस ने अंबेडकर जयंती के दिन नागपुर में एक बड़ी सभा का आयोजन किया।
बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने लखनऊ में अंबेडकर जयंती मनाते हुए एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। उत्तर प्रदेश में विधानसभा का आमचुनाव आगामी साल में होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश के दलितों पर भी है। इसलिए मायावती के लिए इस साल का यह आयोजन खास मायने रखता है।
दलितों का समर्थन भारतीय जनता पार्टी के साथ बहुत कम रहा है। भाजपा और नरेन्द्र मोदी उनका समर्थन हासिल करने के लिए जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा को कुछ दलितों ने भी वोट दिए थे। भाजपा चाहती है कि दलितों के उस समर्थन को बरकरार रखा जाय, लेकिन यह कहना अभी कठिन है कि नरेन्द्र मोदी के कारण पिछले 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिला कुछ दलित समर्थन स्थायी रह पाएगा या नहीं।
भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्तर से भी दलितों के बीच पैठ बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। संघ अपने स्वयंसेवकों को दलित बस्तियों के भेज रहा है और उनके साथ साझा भोज का आयोजन किया जा रहा है। संघ एक मंदिर, एक कुंआ और एक श्मशान का नारा लगा रहा है।
एक तरफ तो राजनैतिक पार्टियां दलितों का अपनी ओर करने के लिए बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर के नाम पर बड़े बड़े आयोजन कर रही हैं, दूसरी तरफ देश के लगभग प्रत्येक कोने से दलितों के ऊपर अत्याचार लगाातर बढ़ते जा रहे हैं। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या उसका एक छोटा सा उदाहरण है। आत्महत्या के नोट में उसने जो कुछ लिखा, उससे पता चलता है कि दलितों के साथ समाज में ही नहीं, बल्कि सरकारी संस्थानों में किस तरह का सुलूक किया जाता है।
रोहित वेमुला कोई अकेला उदाहरण नहीं है, दलितों क साथ होने वाले अत्याचारों की खबरे लगााता बढ़ती जा रही हैं। और इस तरह की घटना देश के सभी हिस्सों मंे हो रही है।
1990 तक अंबेडकर को बहुत की कम लोग जानते थे। उस साल तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें भारत रत्न का सम्मान दिया और उसी साल मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की गई। उन दो घोषणाओं के कारण अंबेडकर देश की राष्ट्रीय राजनीति में चर्चा के विषय बन गए। कांशीराम और मायावती की दलित राजनीति के कारण भी अंबेडकर के बारे में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अंबेडकर को अपना बनाने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रही है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि अंबेडकर न तो कांग्रेस के बहुत नजदीक थे और न ही भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती जनसंघ या आएसएस के। वे कांग्रेस के टिकट पर संविधानसभा में जरूर आए थे, लेकिन उसके पहले उनकी अपनी पार्टी थी। नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर निकल कर भी अंबेडकर ने एक अलग पार्टी बनाई थी। अंबेडकर के लिखे संविधान का उस समय आरएसएस ने विरोध किया था और जब बाबा साहिब हिन्दू कोड बिल पास कराना चाह रहे थे, तो उस समय भी हिन्दूवादी संगठनों ने उनका विरोध किया था।
आजादी के बाद कांग्रेस को दलितो का वोट पूरे देश में मिल रहा था, तो उसका कारण गांधीजी के प्रति दलितों के मन में सम्मान था। बाबू जगजीवन राम कांग्रेस की सरकारों में दलितों के प्रतिनिधि के तौर पर देखे जाते थे। उसके कारण भी दलित कांग्रेस के साथ हुआ करते थे।
पर अब स्थिति बदल गई है। अनेक राज्यों मंे कांग्रेस का साथ दलितों ने छोड़ दिया है और कांग्रेस उनका समर्थन फिर से पाने के लिए अंबेडकर का इस्तेमाल कर रही है।
सवाल उठता है कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियां दलितों को लुभाने में कितना सफल होगी? इस समय पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। मतदान के रुझान में लोग इसे समझने की कोशिश करेंगे, लेकिन भाजपा और कंाग्रेस के लिए असली चुनौती पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मिलने वाली है। दोनों राज्यों में दलितों की संख्या बहुत ज्यादा है। इन दोनों राज्यों के चुनावों से ही पता चलेगा कि दलित वोटों के लिए अंबेडकर के प्रति जागा यह प्रेम क्या गुल खिलाता है। (संवाद)
अंबेडकर की विरासत पाने की होड़
भाजपा और कांग्रेस लगा रही है पूरा जोर
कल्याणी शंकर - 2016-04-17 04:17
दलित प्रतीक भीमराव अंबेडकर की विरासत हो हथियाने के लिए देश की दो प्रमुख राजनैतिक पार्टियों में होड़ मची हुई है। वैसे कुछ अन्य पार्टियां भी हैं, जो अंबेडकर की विरासत का दावा कर रही हैं।