इस साल जो सूचकांक जारी हुआ है, उसके मुताबिक भारत उन चंद देशों में से है, जो नीचे की तरफ खिसके हैं। हालांकि भारत की यह स्थिति खुद में कोई चैंकाने वाली नहीं है। लेकिन यह बात गौरतलब जरूर है कि कई बडे देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हकीकत को गले नहीं उतार पाए है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएंगे। यह गुत्थी भी कम दिलचस्प नहीं है कि सोमालिया (76), पाकिस्तान (92) और बांग्लादेश (110) जैसे देश इस सूचकांक में आखिर हमसे ऊपर क्यों है, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं। यहां तक कि लगातार युध्द से आक्रांत फिलिस्तीन भी इस सूची में भारत से ऊपर है। दिलचस्प बात है कि तीन साल पहले यानी 2013 की सूची में भारत 111वें नंबर पर था। तब से अब तक हमारे शेयर बाजार तो लगभग लगातार ही चढते जा रहे हैं, फिर भी इस दौरान हमारी खुशी का स्तर नीचे खिसक आने की वजह क्या हो सकती है? इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र की पहल पर तैयार किया जाता है, लिहाजा इसे बनाने वालों पर किसी तरह के पूर्वाग्रह या विरोधी पक्षपात का आरोप भी हम नहीं लगा सकते।
दरअसल, यह रिपोर्ट इस हकीकत को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृध्दि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आर्थिक समृध्दि का प्रतीक माना जाने वाला अमेरिका दुनिया के सबसे खुशहाल देशों में शीर्ष 10 में भी अपनी जगह नहीं बना पाया है, जबकि कैरेबियाई देश कोस्टा रिका अपेक्षाकृत गरीब मुल्क माना जाता है, फिर भी खुशहाली के लिहाज से उसका स्थान अमेरिका के तत्काल बाद यानी 14वां है। अगर इस रिपोर्ट को तैयार करने के तरीकों और पैमानों पर सवाल खड़े किए जाएं, तब भी कुछ सोचने का मसाला तो इस रिपोर्ट से मिलता ही है। किसी भी देश की तरक्की को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना जीडीपी या विकास दर है। लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। एक तो यह कि यह किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करता है, पर इससे यह पता नहीं चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का पैमाना केवल उत्पादन-वृद्धि के लिहाज से किसी देश की तस्वीर पेश करता है।
ताजा प्रसन्नता सूचकांक में सबसे अव्वल डेनमार्क है। शीर्ष पांच में अन्य देश हैं- स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे और फिनलैंड। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। फिर इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा काफी है। परिवार या आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है, इसलिए जीवन के फैसले करने की आजादी भी ज्यादा है। जबकि भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नही है, पर हम पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान से भी बदतर स्थिति में है, यह बात हैरान करने वाली है। लेकिन इस हकीकत की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुंच नहीं है, जिसकी वजह से लोगों में असंतोष है। इस स्थिति के बरक्स कई देशों में जो सीमित विकल्प उपलब्ध है उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है, इसलिए वे अपने सीमित दायरे में ही खुश और संतुष्ट हैं। फिर भारत में तो जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है। मसलन, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च ज्यादा होता है, पर स्वास्थ्य के मानकों के आधार पर पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं। दरअसल किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया मे अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक मे 84वें स्थान पर है।
सूचकांक में बताई गई भारत की स्थिति चैंकाती भी है और चिंतित भी करती है। चैंकाती इसलिए है कि हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है- ’संतोषी सदा सुखी’। हालात के मुताबिक खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। दुनिया में भारत ही संभवतः एकमात्र ऐसा देश है जहां आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव मनते रहते हैं, जिनमें मगन रहते हुए गरीब से गरीब से व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द को अपना प्रारब्ध मानकर खुश रहने की कोशिश करता है। इसी भारत भूमि से वर्धमान महावीर ने अपरिग्रह का संदेश दिया है और इसी धरती पर बाबा कबीर भी हुए हैं जिन्होंने इतना ही चाहा है जिससे कि उनकी और उनके परिवार की दैनिक जरूरतें पूरी हो जाए और दरवाजे पर आने वाला कोई साधु-फकीर भी भूखा न रह सके। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में यदि तेजी से बदलाव आ रहा है और लोगों की खुशी का स्तर गिर रहा है तो इसकी वजहें सामाजिक मूल्यों मे बदलाव, भोगवादी जीवन शैली और सादगी के परित्याग से जुड़ी हैं। (संवाद)
वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक 2016: भारतीयों की खुशी पर 'विकास’ का ग्रहण!
अनिल जैन - 2016-04-17 04:30
हमारे देश में पिछले करीब दो दशक से यानी जब से नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू हुई हैं, तब से सरकारों की ओर से आए दिन आंकडों के सहारे देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है और आर्थिक विकास के बडे-बडे दावे किए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे सर्वे भी बताते रहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है और देश में अरबपतियों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। इन सबके आधार पर तो तस्वीर यही बनती है कि भारत के लोग लगातार खुशहाली की ओर बढ रहे हैं। लेकिन हकीकत यह नहीं है। हाल ही में जारी ’वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक 2016’ में भारत को 157 देशों में 118वां स्थान मिला है। यह प्रसन्नता सूचकांक संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क (एसडीएसएन) हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करता है, जिसमें अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में उदारता, सहिष्णुता और अपनी पसंद की जिंदगी जीने या अपने बारे में फैसले लेने की आजादी, सामाजिक सुरक्षा, लोगों में स्वस्थ और दीर्घ की जीवन की प्रत्याशा, भ्रष्टाचार आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं?