मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल उन ‘‘सौभाग्यशाली’’ शहरों में से एक है, जो स्मार्ट सिटी के पहले चरण में चयनित 20 शहरों की सूची में शामिल है। पर यह सौभाग्य यहां की जनता के लिए दुर्भाग्य की तरह है। स्मार्ट सिटी की घोषणा के कुछ दिनों बाद जब प्रचार तंत्र का जोर थोड़ा कम हुआ, तो भोपालवासियों को हकीकत से सामना हुआ। हकीकत यह है कि स्मार्ट सिटी के कारण भोपाल का एक हरा-भरा क्षेत्र नष्ट होने के कगार पर पहुंच गया है। पहले तो इसका विरोध कुछ प्रभावित लोगों ने किया, पर देखते ही देखते शहर के बुद्धिजीवी स्मार्ट सिटी के खिलाफ हो गए। ऐसा नहीं है कि विरोध करने वालों में विपक्षी पार्टियां, वामपंथी पार्टियां या फिर प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग है, बल्कि इसके विरोध में सत्ता पक्ष से सहानुभूति रखने वाली आम जनता भी है।
पहले तो लोगों को यह समझ में ही नहीं आया था कि स्मार्ट सिटी का मतलब शहर के एक खास क्षेत्र का चयन है। लोग यह समझते रहे कि स्मार्ट सिटी में पूरा शहर शामिल होगा और इसमें चयन होने का मतलब है - लोगों को मूलभूत सुविधाओं में बढ़ोतरी, झुग्गी बस्तियों का बेहतर विकास, पानी और जल-मल निकासी की बेहतर व्यवस्था, सार्वजनिक यातायात की बेहतर व्यवस्था। पर स्मार्ट सिटी का यह अर्थ गलत साबित हुआ। इसमें शहर के एक खास क्षेत्र का चयन कर उसे इस तरह से विकसित किया जाएगा, जिससे (शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू के अनुसार) स्मार्ट सिटी में पानी और बिजली आपूर्ति, सफाई और ठोस कचरा प्रबंधन, मुकम्मल शहरी आवागमन और सार्वजनिक परिवहन, आईटी संपर्क, ई-गवर्नेंस के जरिए बुनियादी सुविधाएं और नागरिक भागीदारी विकसित की जाएगी। नायडू के अनुसार जो कुछ भी हो रहा है या होना है, वह शहरी स्तर पर स्थानीय संस्थाओं द्वारा होना है। जनता की इसमें भागीदारी बेहद आवश्यक है।
मंत्री के इस बयान से ही स्पष्ट है कि यह समग्र शहरी विकास की अवधारणा नहीं है, बल्कि अमीरों के लिए एक ऐसे सेटेलाइट शहर का विकास करना है, जहां पैसे के बल पर सबकुछ खरीदा जा सकता है। वहां सामान्य जनता के लिए कोई जगह नहीं होगी। स्मार्ट सिटी में एक सीईओ होगा, जो कंपनी के तर्ज पर उस शहर की व्यवस्था करेगा। इसके साथ ही इसमें विकास के बुनियादी संकेतकों - बेहतर पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का कोई जिक्र ही नहीं है। एक ओर जनता की भागीदारी की बात की जा रही है, पर दूसरी ओर जनता के विरोध की अनदेखी की जा रही है। जब मंत्री के अनुसार स्थानीय संस्थाओं और शहरी स्तर पर जनता की भागीदारी के आधार पर स्मार्ट सिटी बनना है, तो इसके लिए वार्ड स्तर पर जन सुनवाई, सुझाव, सहमति जैसे तकनीकों पर जोर क्यों नहीं दिया जा रहा है और क्यों दिल्ली से इस संबंध में निर्देश जारी किए जा रहे हैं?
भोपाल के जिस क्षेत्र का चयन स्मार्ट सिटी के लिए किया गया है, वह पहले सही विकसित और बेहतर पर्यावरण वाला क्षेत्र है। चूंकि इस इलाके में सरकारी क्वार्टर ज्यादा है और यह पाॅश क्षेत्र में आता है, इसलिए यहां से सरकारी आवासों को सरकार शिफ्ट कर निजी भागीदारी से विकास के नाम पर कमाई का जरिया बनाया जा रहा है। यहां से विस्थापित होने वाले लोगों के लिए कोई ठोस योजना सरकार के पास नहीं है। हजारों की संख्या में कटने वाले विशाल पेड़ों की चिंता किसी को नहीं है। इन पेड़ों के कारण ही भोपाल का वातावरण बेहतर बना रहता था, पर यहां बीआरटीएस के नाम पर भी हजारों पेड़ काट डाले गए, जिनकी भरपाई नहीं की जा सकी है। भोपाल में पहले ही सरकारी आवास वाले कई क्षेत्रों को विकास के नाम पर खाली करवाया गया है, पर वहां अब वीरानगी पसरी हुई है। कुछ क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपा जा चुका है। ऐसे में भोपाल में बन रहे स्मार्ट सिटी को विकास के नाम पर मजाक ही कहा जाएगा। भोपाल में कई ऐसे इलाके हैं या पूर्व में ही खाली कराए गए क्षेत्र हैं, जहां यह कवायद की जा सकती है, यद्यपि यह योजना शहरी विकास के लिए सही नहीं है और पूरे शहर के समुचित विकास, जिसमें शहरी गरीब भी शामिल हो, के लिए इस स्मार्ट सिटी का विरोध करते हुए खुबसूरत शहर की मांग करनी चाहिए।
भोपाल की स्मार्टनेस यहां के पेड़ों और जंगल को बचाने में, तालाबों और झीलों को अतिक्रमण से मुक्त कराकर संरक्षित करने में, तालाबों में गंदे पानी न मिले इसके लिए सही ड्रेनेज व्यवस्था विकसित करने में और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, परिवहन की समुचित व्यवस्था करने में हैं न कि हरे-भरे हजारों पेड़ों को काटने, बड़ी आबादी को विस्थापित करने और गरीबों को हाशिये पर धकेलने में है। (संवाद)
विकास के नाम पर मजाक है स्मार्ट सिटी
राजु कुमार - 2016-05-04 08:41
शुरुआती चंद दिनों को छोड़ दिया जाए, तो लोगों को यह बात समझते देर नहीं लगी कि स्मार्ट सिटी की अवधारणा विकास के नाम पर मजाक है। इसके मार्फत कहीं झुग्गियों को उजाड़ने की योजना बनाई गई, तो कहीं पहले से ही अति विकसित क्षेत्र का चयन कर भ्रष्टाचार की राह तैयार की जा रही है, तो कहीं पर्यावरण को नष्ट कर कांक्रीट के जंगल उगाए जाने की योजना पर अमल किया जा रहा है। पिछली यूपीए सरकार ने बीआरटीएस काॅरिडोर के नाम पर शहरों की यातायात को तहस-नहस कर दिया। अब उसे यातायात के लिए बोझ समझा जाने लगा है और वह असफल योजना साबित हो रही है। उस दरम्यान भी शहरी गरीबों और हरे-भरे पेड़ों को उजाड़ा गया था। विस्थापित गरीब मुख्यधारा से और दूर चले गए। हरे-भरे पेड़ों की भरपाई आज तक नहीं हो पाई। अब फिर कुछ ऐसा ही स्मार्ट सिटी के नाम पर होने जा रहा है।