कांग्रेस के लिए हरीश रावत की विधानसभा में जीत एक बड़ी कामयाबी के रूप में आई है। संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस की स्थिति दयनीय बनी हुई थी, क्योंकि अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकाॅप्टर में दलाली का मसला उसके लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। हरीश रावत के लिए तो यह बहुत बड़ी जीत है। संकट शुरू होने के पहले उनकी स्थिति डांवाडोल थी। मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उनके खिलाफ कुछ कांग्रेसी नेता असंतुष्ट थे और उनको लगातार चुनौती दे रहे थे। इस जीत के बाद उन्होने प्रदेश की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और उनके विरोधी भी कांग्रेस से बाहर हो चुके हैं।

हरीश रावत मुख्यमंत्री के रूप में वापस आ गए हैं, लेकिन उनकी चुनौतियां अभी समाप्त नहीं हुई है। पहली चुनौती तो उन्हें कांग्रेस में एकता बनाए रखने की है, क्यांेकि भारतीय जनता पार्टी की ओर से उनके ऊपर और हमले हो सकते हैं और उनकी पार्टी और समर्थक विधायकों को तोड़ने की कोशिश की जा सकती है। दूसरी चुनौती आगामी विधानसभा में कांग्रेस को जीत दिलाने की है।

उन्हें स्टिंग सीडी का भी सामना करना है। सीबीआई उसकी जांच कर रही है। वैसे मुख्यमंत्री बनने के लिए हरीश रावत को लंबे समय से इंतजार करना पड़ रहा था। 2002 से ही वे मुख्यमंत्री बनने की कतार में शामिल थे और मुख्यमंत्री बनते बनते रह जाया करते थे। जब 2002 में मुख्यमंत्री बनने की बारी आई थी, तो नारायण दत्त तिवारी से वे पिछड़ गए और जब 2012 में पार्टी को जीत मिली थी, तो विजय बहुगुणा ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था।

लेकिन 2013 में आखिरकार वे मुख्यमंत्री बन ही गए। उस समय तक विजय बहुगुणा बहुत अलोकप्रिय हो गए थे।

कांग्रेस की जीत हो गई है, लेकिन उसे इस संकट से सबक लेनी चाहिए। सबसे बड़ी सबक तो केन्द्रीय नेतृत्व को लेनी चाहिए और यह सबक यह है कि प्रदेश ईकाई की वह उपेक्षा नहीं कर सकता। अच्छी बात यह रही कि संकट के समय में कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व हरीश रावत के साथ मजबूती से खड़ा रहा, लेकिन इसके सिवा उसके पास विकल्प ही क्या था?

उत्तराखंड के कांग्रेसी विधायकों के बीच असंतोष बहुत समय से पनप रहा था, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व के पास असंतुष्टों से मिलने के लिए समय ही नहीं था। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलना चाहते थे, लेकिन उन्हें मिलने के लिए समय ही नहीं मिल पा रहा था। यही अरुणाचल प्रदेश के कांग्रेसियों के साथ हुआ। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व प्रदेश के विधायकों से समय पर संवाद स्थापित करने में विफल रहा और उसके कारण ही अरुणाचल प्रदेश की उसकी सरकार गिर गई। वही उत्तराखंड में भी हुआ, लेकिन हरीश रावत ने यहां मामले को संभाल लिया, जबकि अरुणाचल प्रदेश कांग्रेस के हाथ से निकल गया।

भारतीय जनता पार्टी को भी इससे सीख लेनी चाहिए। उसे सीखना चाहिए कि हड़बड़ का काम शैतान का होता है और कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया जाना चाहिए। जल्दी दिखाने के कारण उसे भारी फजीहत का सामना करना पड़ा और वह उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार को गिरा भी नहीं पाई। (संवाद)