वैसे जनतांत्रिक राजनीति में दल-बदल अपने आप में कोई बुराई नहीं है। एक खुले और लोकतांत्रिक समाज में हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का अधिकार रखता है। अगर विचारों में परिवर्तन को सिरे से ही बुराई मान लिया जाए तो यह उस व्यक्ति के अधिकार का हनन या उसमें हस्तक्षेप करना होगा। आजादी के बाद भारत की राजनीति में दल-बदल की ऐसी कई मिसालें हमारे सामने हैं, जिनसे इस अधिकार की सिर्फ पुष्टि ही नहीं हुई है बल्कि हमारा लोकतंत्र भी परिपक्व हुआ है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी यानी राजाजी और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी अपने समय में देश के शीर्ष राजनेताओं में शुमार किए जाते थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। राजाजी को तो कांग्रेस ने ही देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी। डॉ. मुखर्जी भी आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की सरकार में मंत्री थे। लेकिन दोनों ही नेताओं को वैचारिक मतभेदों के चलते बाद में कांग्रेस से अलग होना पडा। राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी का गठन किया और डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से भारतीय जनसंघ की स्थापना कर ली। कांग्रेस से ही जुडे एक अन्य विद्वान राजनेता मीनू मसानी भी कांग्रेस से नाता तोडकर राजाजी की स्वतंत्र पार्टी में शामिल हुए थे।

इसके पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर रहे समाजवादी धड़े के आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया आदि नेताओं ने तो बडी संख्या में अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड कर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था। उसी दौर में महात्मा गांधी के अनन्यतम अनुयायी आचार्य जेबी कृपलानी ने भी कांग्रेस से नाता तोडकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी, जो बाद में सोशलिस्ट पार्टी में विलीन हो गई थी। ये सारे दल-बदल किसी न किसी विचार और आदर्श पर आधारित थे, न कि महज सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य से प्रेरित। दरअसल सन 1967 के आम चुनाव तक दल-बदल को राजनीतिक प्रक्रिया का एक सामान्य अंग ही माना जाता था। यह एक रोग या अनिवार्य बुराई है, यह धारणा उस वर्ष विधानसभा चुनावों के बाद जो कुछ हुआ, उसके कारण विकसित हुई। आज यह बुराई एक भयावह और चिताजनक रूप ले चुकी है। देश के किसी भी सूबे और किसी भी दल की राजनीति इस बीमारी से अछूती नहीं है।

तो 1967 में दल-बदल के जरिए राज्यों में शुरू हुआ सरकारें गिराने-बनाने-बचाने का खेल बाद के वर्षों में लगातार विकसित होता गया। इस खेल को समाप्त करने के लिए पहली बार उस समय गंभीरतापूर्वक सोचा गया जब आठवें आम चुनाव में कांग्रेस ने राजीव गांधी की अगुवाई में तीन चैथाई से अधिक बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। राजीव गांधी की सरकार ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52वे संविधान संशोधन के जरिए दल-बदल विरोधी कानून संसद में पारित कराया। हालांकि इस कानून को पारित कराने को लेकर राजीव गांधी की नीयत पर सवाल भी उठे। कई लोगों ने इसे उनके 450 से अधिक सांसदों के भारी-भरकम बहुमत की सुरक्षा के लिए उठाया गया कदम माना। इस कानून में सबसे बड़ी खामी या विसंगति यह थी कि इसके जरिए व्यक्तिगत दल-बदल पर तो रोक लगाई गई कितु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई। शुरू में इस कानून में प्रावधान था कि यदि किसी पार्टी के एक तिहाई विधायक या सांसद दल बदलते हैं तो उनका यह कदम दल-बदल नहीं बल्कि दल-विभाजन माना जाएगा। आगे चलकर यह संख्या पचास प्रतिशत और फिर दो तिहाई कर दी गई।

लेकिन मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। जिस समय यह कानून पारित किया जा रहा था, संसद के भीतर लगभग सभी दलों ने इसका समर्थन किया था, यहां तक कि जनता पार्टी के सांसद और वरिष्ठ समाजवादी नेता प्रो. मधु दंडवते ने भी इसे ऐतिहासिक कदम करार दिया था। लेकिन समाजवादी चिंतक और संसदविद् मधु लिमये एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अखबारों में अपने लेखों के माध्यम से इसके प्रावधानों पर सवाल उठाते साफ कहा था कि इस कानून से दलबदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून खुदरा दल-बदल को तो रोकता है, मगर थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। दल-बदल विरोधी कानून बनने के कुछ वर्षों के भीतर ही यह साफ हो गया कि यह कानून अपने मकसद को पाने मे नाकाम है और आज तो यह कानून न सिर्फ नाकारा बन गया है, बल्कि इसने हमारे संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को जन्म दे दिया है।

दरअसल दल-बदल की समस्या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिन्हें नजरंदाज नही किया जा सकता क्योंकि हर स्थिति में दल-बदल अवसरवाद या महत्वाकांक्षा या लोभ के कारण ही होता हो, ऐसा भी नही है। इसके मूल में कहीं-न-कहीं भारतीय लोकतंत्र मे स्वीकृत पार्टी प्रणाली भी है, और साथ ही राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव भी। मौजूदा दौर में भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी राजनीतिक दल एक नेता और उसके परिवार की निजी जागीर बन गए हैं। ऐसे दलों में संगठनात्मक चुनाव केवल निर्वाचन आयोग के निर्देश की औपचारिक तौर पर खानापूर्ति के लिए होते हैं ताकि दल की मान्यता बची रह सके। लेकिन ये वास्तविक चुनाव नहीं होते जिनमें उम्मीदवार बिना झिझक के किसी के भी खिलाफ खड़ा हो सके और गुप्त मतदान के जरिए चुनाव हो। ऐसी पार्टियों में नेता केवल एक सीमा तक ही अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। वे कभी भी किसी मुद्दे पर अपने दल के सर्वोच्च नेता की राय से असहमति नहीं जता सकते। नतीजतन उनके भीतर असंतोष और आक्रोश बढ़ता जाता है और वह ऐसे समय उग्र होकर बाहर निकलता है जब उनके अपने राजनीतिक हितो पर चोट होती है।

लेकिन इन कमियों को दूर करने के बारे में देश की राजनीतिक जमातें सोचने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए नग्न अवसरवाद और मूल्यहीनता का खुला खेल चल रहा है। सवाल यही है कि हमारी संसद कोई भी कानून सीधा-साधा क्यों नहीं बनाती है? क्यों उसमें इतने जटिल प्रावधान बना दिए जाते हैं जिनका खुलेआम दुरुपयोग किया जाता है, जिससे उस कानून की आत्मा ही मर जाती है। (संवाद)