यह सच है कि भारतीय जनता पार्टी असम में कभी सत्ता में नहीं थी। सत्ता में क्या, वह कभी वहां मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में भी नहीं थी। पर 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे जबर्दस्त सफलता हासिल हुई थी। उस समय वह मोदी लहर पर सवार थी। उस लहर ने भारतीय जनता पार्टी को असम की 14 में से 7 सीटों पर जीत दिला दी थी।

वह जीत मामूली नहीं थी। उसके कारण भारतीय जनता पार्टी वहां विधानसभा चुनाव में सत्ता मे आने का ख्वाब देख सकती थी। कांग्रेस का मुख्य विपक्षी वहां पिछले कुछ दशकों से असम गण परिषद हुआ करती थी, जो विभाजन के बाद लगातार कमजोर होती जा रही थी। असम गण परिषद वही मुद्दे उठाया करती थी, जो भारतीय जनता पार्टी को भी प्रिय है। जाहिर है, असम गण परिषद के कमजोर होने का फायदा भाजपा को अपने आप मिल रहा था।

इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद भाजपा असम की सत्ता पाने को लेकर उम्मीदें पाल रही थीं। पर दिल्ली और बिहार की हार ने उसे सकते में डाल दिया था। दिल्ली में भी लोकसभा चुनाव में उसे जबर्दस्त जीत मिली थी। वहां की सातों सीटों पर उसका कब्जा हो गया था, पर सात महीने के बाद ही हुए चुनाव में भाजपा का सूफड़ा साफ हो गया। 70 में से मात्र 3 सीटों पर उसे जीत मिली।

दिल्ली की तरह ही बिहार में भी भारतीय जनता पार्टी को हार का मुह देखना पड़ा। लोकसभा चुनाव मे उसे वहां भी भारी सफलता मिली थी, लेकिन विधानसभा में चुनावी हार का सामना करना पड़ा।

दिल्ली और बिहार के हार के प्रति भारतीय जनता पार्टी असम को लेकर भी सशंकित हो गई थी। यही कारण है कि उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली अपनी शक्ति पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया, बल्कि वहां गठबंधन करने की राजनीति अपनाई। वह किसी भी सूरत मंे वहां का चुनाव नहीं हारना चाहती थी। अब अपने बूते नहीं, तो गठबंधन के साथ ही सही, लेकिन अपनी सरकार वहां चाहती थी। इसलिए उसे असम गण परिषद और बोडो पीपल्स फ्रंट के साथ गठबंधन कर लिया। इसके अलावा उसने कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी भाजपा में शामिल करवा लिया। हेमंतो बिस्व शर्मा को पार्टी में शामिल करना उसके लिए खासतौर पर फायदेमंद रहा।

इस तरह गठबंधन के द्वारा भाजपा ने वहां अपनी जीत लगभग सुनिश्चित कर ली थी। उसने वह गलती भी नहीं दुहराई, जो बिहार में दुहराई थी। बिहार में उसने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार पेश नहीं किया था। असम में उसने सर्बानंद सोनोवाल को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया। वे अनुसूचित जनजाति के हैं और प्रदेश में उनकी एक खास छवि रही है। उस छवि का लाभ भी भारतीय जनता पार्टी को मिलना था और वह लाभ मिला भी।

कांग्रेस नेतृत्व की नासमझी का लाभ भी भारतीय जनता पार्टी को मिला। कांग्रेस नेतृत्व की एक नासमझी तो तरुण गोगाई पर ज्यादा निर्भर रहना था। गोगोई वहां परिवारवाद फैला रहे थे, जिसका कांग्रेसियों द्वारा भारी विरोध हो रहा था। उसके कारण ही हेमंत के साथ अनेक कांग्रेस विधायक भाजपा में चले गए थे। लिहाजा कांग्रेस कमजोर हो गई। कां्रगेस नेतृत्व ने उस ओर ध्यान नहीं दिया।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार की तर्ज पर ही असम में भी महागठबंधन का निर्माण चाहते थे और उनकी इच्छा थी कि आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ कांग्रेस गठबंधन करे, लेकिन कांग्रेस ने वैसा करने से इनकार कर दिया। उसे लगा कि भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आते देख मुस्लिम पूरी तरह कांग्रेस के साथ चिपक जाएंगे और आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का ही सफाया हो जाएगा। गौरतलब हो कि यह फ्रंट मुस्लिमों का संगठन है और उनका एक बड़ा हिस्सा इस फ्रंट के साथ रहता है।

कांग्रेस की यह एक बहुत बड़ी गलती थी, जिसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को हुआ। यदि फ्रंट के साथ कांग्रेस का गठबंधन होता, तो भाजपा को जीत के लाले पड़ जाते, लेकिन वैसा हुआ नहीं, क्योंकि कंाग्रेस ने अपनी शक्ति को बढ़ा चढ़ा कर देखा और भाजपा गठबंधन की शक्ति को नजरअंदाज करने की नीति बनाई।

भारतीय जनता पार्टी की जीत असल में असम में ही हुई है। अन्य राज्यों में वह लोकसभा चुनाव वाले नतीजों की पुनरावृति नहीं कर पाई है। पश्चिम बंगाल में उसे तीन सीटें मिलीं, जबकि लोकसभा चुनाव में वह 24 सीटों पर आगे थीं। तमिलनाडु में उसका खाता नहीं खुला। केरल में उसे एक सीट मिली और पहली बार वहां उसका खाता खुला।

असम की जीत भारतीय जनता पार्टी से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए थी। नरेन्द्र मेादी की पार्टी में प्रतिष्ठा इसलिए है, क्योंकि वह पार्टी को जीत दिला सकते हैं। असम में यदि पार्टी हार जाती, तो कहा जाता कि अब मोदी उम्मीदवारों को वोट नहीं दिला पा रहे हैं। जाहिर है, इसके कारण पार्टी के अंदर के उनके विरोधी कुछ खुराफात करते। वे उनके खिलाफ मुखर भी हो सकते थे। लेकिन असम में भाजपा को मिली जीत ने साबित कर दिया कि भले ही दिल्ली और बिहार में मोदी पार्टी को नहीं जिता पाए हों, लेकिन असम में जीत दिलाकर उन्होंने यह साबित कर दिया कि चुनाव जिताने की उनकी क्षमता अभी भी बरकरार है। अस जीत के साथ नरेन्द्र मोदी की मजबूत हुए हैं और पार्टी के अंदर के उनके आलोचकों के मुह बंद हो गए हैं। (संवाद)