इस तरह रेल मंत्री सुरेश प्रभु की रेलवे को आईसीयू से बाहर निकालने की सारी हसरतें कहां तक पूरी हो पाती हैं कहना मुश्किल है क्योंकि एनडीए सरकार ने अगले पांच वर्षों में रेलवे को नवजीवन प्रदान करने के लिए 8.5 लाख करोड़ रूपये के निवेश की योजना बना रखी है। इस योजना का प्रतिफल तो आगे दिखेगा लेकिन इतने भारी भरकम कर्ज को चुकाने के लिए रेलवे को अपनी कमाई का अच्छा खासा हिस्सा बतौर ब्याज में ही चुकाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो पिछले पांच वर्षों से रेलवे की कमाई यात्री और माल ढुलाई दोनों ही क्षेत्रों में लगातार गिर रही है। और इन्हीं पांच वर्षों में रेलवे के खर्च में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। यही नहीं जनवरी 2016 से लागू हो चुके सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें रेलवे वित्त विभाग की कमर और ज्यादा तोडऩे के लिए तैयार बैठा है ऐसे में रेलवे के लिए की तिजोरी की हालत अच्छी नहीं कही जा सकती है और यह संकटकाल की ओर इशारा करती है जो देश को व्याकुल कर सकती है। इसके अलावा रेलवे की आंतरिक आमदनी में कमी का प्रमुख खलनायक की भूमिका निभाने वाला सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें भी एक दु:स्वप्न साबित हो सकती हैं। इससे रेलवे को अपने 8.5 लाख करोड़ के भारी भरकम योजना बजट को 4 लाख करोड़ पर सिमटाने के लिए बाध्य होना पड़ सकता है।

रेलवे के जानकारों की ही मानें तो रेलवे अपने भारी भरकम कर्ज के ब्याज के भुगतान में ही सालाना 35 हजार करोड़ रूपये खर्च करने को विवश होगी। यदि रेलवे द्वारा इस दौरान कुछ अतिरिक्त कमाई भी की जाती है तो वह सब ब्याज चुकाने में ही चला जाएगा।

रेल मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि जब भारतीय अर्थव्यवस्था 9 प्रतिशत की दर से विकास कर रही है तो इस दौरान रेलवे के विकास की दर भी इसके आसपास वार्षिक रहने की संभावना है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि रेलवे ने जो वार्षिक योजना के तहत संभाव्य रूपरेखा तैयार की है उसके अनुसार रेलवे को 48 फीसदी सरकारी खजाने से बजटीय सहायता के रूप में, 28 प्रतिशत आंतरिक संसाधनों से और बाकी बची 24 प्रतिशत धन राशि बाजार से उधार लेकर पूरी की जाएंगी। रेलवे सूत्रों का कहना है कि यह प्रस्ताव विस्तारित और विकासोन्मुखी है जो रेलवे में लंबे समय तक विकास के पहिया को चलाने में सक्षम होगा। वर्तमान समय में वैश्विक अर्थव्यस्था के डांवाडोल स्थिति में होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित हो रही है और इसका प्रभाव रेलवे की कमाई पर बुरा असर डाल रहा है। रेलवे की आंतरिक कमाई भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है और कम माल ढुलाई के कारण रेलवे का बजट बिगड़ता जा रहा है। यही कारण है कि रेलवे की माली हालत यह हो गई है कि सातवें वेतन आयोग की मार से बेजार हो रहे खाता बही को संभालने के लिए 50 प्रतिशत सरकारी खजाने से बजटीय सहयोग लेने की जरूरत पड़ जाए और 50 प्रतिशत राशि बाजार से उधार लेने पड़े क्योंकि रेलवे की अतिरिक्त कमाई का अनुपात लगातार कम होता जा रहा है। यह संयोग ही है कि रेलवे आज जिस कर्ज के जाल में फंसी हुई है उससे निकालने के लिए एनडीए सरकार के चार्टर्ड अकाउंटेंट रेल मंत्री सुरेश प्रभु को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। रेल मंत्री ने एक ही अभियान चला रखा है जो आज खूब प्रचलित भी हो चला है: निवेश-निवेश और केवल निवेश।

वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि रेलवे में निजी निवेशक आना नहीं चाहते क्योंकि उनके लिए यह उतना फायदे का सौदा नहीं रह गया है। ऐसे में बाजार से उधार लेकर रेलवे में निवेश करना उतना फायदेमंद भी नहीं रह गया है। भारतीय रेलवे के लिए भारी भरकम कर्ज लेकर विकास का रास्ता चुनना चाहे जितना फायदेमंद दिखे लेकिन इस कर्ज के जाल से निकलना उसके लिए आसान नहीं होगा।

अलबत्ता रेल मंत्रालय ने आरटीआई के तहत पूछे गए सवाल कि रेलवे की कुल वार्षिक बजटीय हानि कितनी है का जवाब ही नहीं दिया है जो कि भारतीय संविधान के तहत गठित आरटीआई एक्ट 2005 में नागरिक अधिकारों का सरासर हनन है। यह हनन लगभग हर सरकारी विभागों में देखा जा रहा है जहां सरकारी अधिकारियों और सरकार के बारे में पूछे गए सवालों का जवाब ही नहीं दिया जा रहा है या भ्रामक या गोल मटोल जवाब देकर टरकाया जा रहा है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि रेलवे ने जो भी सूचना प्रदान की है उसके अनुसार ही उसे अगले पांच वर्षों तक उसके ब्याज को चुकाने में ही कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। इसका प्रभाव रेलवे सेवाओं के महंगा होने के रूप में सामने आ सकता है और रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की चाल पिछले दरवाजे से की जा रही है हालांकि एनडीए सरकार इसका हमेशा खंडन करती आई है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि हाल के दिनों में डीजल के सस्ता होने का लाभ यात्रियों को नहीं दिया गया जबकि इसका प्रावधान स्वयं रेलवे ने किया है। यह एक चेतावनी भर है जिसे समय रहते सुनने और उसका हल करने की जिम्मेदारी वर्तमान सरकार और मंत्री पर है कि रेलवे का ढांचा चरमरा न जाए। रेलवे के पूर्व वित्त आयुक्त एसी पोलस ने 1993-94 में कहा था कि कर्ज के जाल से रेलवे को निकालना होगा नहीं तो यह एक दिन रेलवे को ही बैठा देगा। रेलवे को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए के शब्द भेद को अच्छी तरह समझना ही होगा।