अभी तक स्टालिन अपने पिता की छाया में राजनीति कर रहे थे। करुणानिधि परिवार के अंदर सत्ता का संघर्ष चल रहा था और उनका परिवार के अंदर विरोध भी हो रहा है। यही कारण है कि अधिक उम्र होने के बावजूद करुणानिधि अपने आपको पार्टी के शीर्ष पर बनाए हुए हैं और यही कारण है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भी करुणानिधि ने अपने आपको अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया था, जबकि उनकी उम्र 93 पार कर गई है। यदि उनकी पार्टी को बहुमत मिलता तो वे भारत के सबसे अधिक उम्र वाले मुख्यमंत्री के रूप में ख्याति पाते।

बहरहार, डीएमके को बहुमत नहीं मिला और करुणानिधि मुख्यमंत्री नहीं बने, लेकिन डीएमके को जो सीटें मिली हैं, उनसे यह साबित हो गया है कि पार्टी ने करुणानिधि के वारिस के रूप में स्टालिन को स्वीकार कर लिया है और वे अपने बूते अब पार्टी की कमान को संभाल ही नहीं सकते हैं, बल्कि उसे कभी सत्ता में भी बैठा सकते हैं।

डीएमके और कांग्रेस के गठबंधन को 98 सीटें मिली हैं। पिछले 2011 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों ने मिलकर ही चुनाव लड़ा था, लेकिन उस समय इस गठबंधन का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था। डीएमके के लिए वह चुनाव इतिहास का सबसे खराब चुनाव था, लेकिन पिछले दिनों हुए चुनाव में स्थिति बदल गई है। विपक्ष में होने के बावजूद डीएमके को इतनी सीटंे मिल गई हैं कि वह जयललिता सरकार की नींद हराम कर सकती हैं।

और यह सब स्टालिन के नेतृत्व में ही हुआ है। मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में तो करुणानिधि का ही नाम था, लेकिन चुनाव प्रचार की कमान स्टालिन ने ही संभाल रखी थी। उम्मीदवार चयन से लेकर अभियान चलाने तक- सभी जगह स्टालिन की छाप दिखाई पड़ती थी। पार्टी के प्रमुख पदों पर स्टालिन के ही लोग थे और यह चुनाव उनके लिए परीक्षा की घड़ी थी।

कहने की जरूरत नहीं कि स्टालिन उस परीक्षा में खरे उतरे हैं। यह सच है कि उनकी पार्टी सत्ता नहीं पा सकी, लेकिन इसके लिए मुख्य कारण जयललिता विरोधी वोटों का बंटवारा था। डीएमके ने कुछ और दलों के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वे गठबंधन में आने के लिए शामिल नहीं हुए। इसके कारण जयललिता विरोधी मतों को जबर्दस्त बंटवारा हुआ और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री लगातार एक और चुनाव जीतने में सफल रही।

डीएमके ने कांग्रेस के साथ गठनबंधन किया था, लेकिन कांग्रेस उसके गले की फांस साबित हुई है। यदि डीएमके अकेली ही चुनाव लड़ी होती, तो शायद उसका प्रदर्शन और बेहतर होता, क्योंकि कांग्रेस की छवि तमिलनाडु में भी खराब हुई है। उसकी छवि एक भ्रष्ट पार्टी की बन गई है, जिसके अंदर सत्तालालुप लोग ही रहते हैं। भ्रष्टाचार के आरोप तो डीएमके और खुद करुणानिधि परिवार पर भी है, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति पर उसकी पकड़ है और उसकी कुछ क्षेत्रीय प्रतिबद्धता भी है, जिसके कारण लोग उसे पसंद करते हैं।

लेकिन कांग्रेस की छवि तमिलनाडु में अनेक कारणों से खराब है। उस पर न सिर्फ भ्रष्ट होने का आरोप है, बल्कि श्रीलंका के तमिलों के नरसंहार के लिए भी तमिलनाडु के लोग कांग्रेस को ही जिम्मेदार मानते हैं। जिसके कारण डीएमके को कांग्रेस का साथ होने का खामियाजा कुछ न कुछ तो जरूर भुगतना पड़ा।

स्टालिन अभी भी अपने परिवार के अन्य सदस्यों के विरोध का सामना कर रहे हैं। उनके बड़े भाई उनके लड़ते हुए पार्टी से बाहर किए जा चुके हैं। इस चुनाव में उन्होंने डीएमके के लिए कुछ नहीं किया, जबकि राज्य के दक्षिणी जिलों मे उनका अच्छा प्रभाव है। उनकी बहन कणिमोड़ी तो चुनाव प्रचार में पार्टी के लिए बहुत कुछ करती दिखाई पड़ रही थी, लेकिन उनका अनमनापन भी साफ दिखाई पड़ रहा था।

इन सबके बावजूद डीएमके का यह प्रदर्शन काबिले तारीफ है। इस चुनाव के दौरान स्टालिन ने अपना सिक्का पार्टी पर ही नहीं, बल्कि प्रदेश की राजनीति पर भी जमा लिया है। (संवाद)