राहुल ने उत्तर प्रदेश के गांवों की खाक छानी। दलितों के मोहल्लों में रातें गुजारीं। उनके साथ भोजन किया। सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। पर एकाएक भ्रष्टाचार के एक के बाद एक अनेक मामले सामने आए और अन्ना के नेतृत्व में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। उस आंदोलन में राहुल का उत्तर में किया गया प्रयास डूबने लगा। लेकिन कांग्रेस ने तब भी हिम्मत नहीं हारी। राहुल का प्रयास जारी रहा। अपने तरीके से सोशल इंजीनियरिंग की जा रही थी। मुसलमानों को 27 फीसदी ओबीसी कोटे में विभाजन कर आरक्षण दे दिया गया। कांग्रेस को लगा कि इससे मुसलमान खुश हो जाएंगे, लेकिन पहले जिन मुसलमानों को आरक्षण मिल रहा था, आरक्षण उन्हें ही दिया गया। सिर्फ उनके लिए एक अलग सबकोटा बना दिया गया। इसलिए मुसलमानों ने वह कदम अपने को बेवकूफ बनाने वाले कदम के रूप में देखा और दूसरी तरफ हिन्दू ओबीसी को 27 फीसदी कोटे में विभाजन पसंद नहीं आया।
ओबीसी का वोट पाने के लिए कांग्रेस ने उस श्रेणी के उम्मीदवारों की संख्या काफी बढ़ा दी। लेकिन कांग्रेस को इससे फायदा होने की जगह नुकसान ही हो गया, क्योंकि 27 फीसदी कोटे को बांटकर कांग्रेस ने ओबीसी को तो पहले ही अपने खिलाफ खड़ा कर दिया था और वे कांग्रेस के ओबीसी उम्मीदवारांे को भी वोट नहीं कर सकते थे और दूसरी तरफ अगड़ी जातियों को अधिकांश जगह टिकट से वंचित कर कांग्रेस ने उन्हें भी नाराज कर दिया।
इस तरह कांग्रेस की सारी सोशल इंजनीयरिंग अपनी जगह धरी की धरी रह गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश की कुल 80 में से 22 सीटों पर जीतने वाली कांगंेस को 2012 के विधानसभा चुनाव में 400 सीटों में से मात्र 28 पर ही जीत हासिल हो सकी। इस तरह सरकार बनाने का राहुल गांधी का सपना चकनाचूर हो गया।
इस बार सरकार बनाने के लिए तो नहीं, लेकिन अपनी इज्जत बचाने के लिए कांग्रेस ने अपना सारा जोर लगा दिया है। इस बार भी वह सोशल इंजीनियरिंग कर रही है। उसके तहत उसने एक मुस्लिम को प्रदेश का पार्टी प्रभारी बनाया है। गुलाम नबी आजाद पार्टी के एक वरिष्ठ और अनुभवी नेता हैं। उनसे बेहतर प्रभारी इस समय कांग्रेस के लिए कोई और हो भी नहीं सकता था। गुलाम नबी आजाद को प्रभारी बनाने के बाद पार्टी ने राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है। श्री बब्बर समाजवादी पृष्ठभूमि के हैं और समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए हैं। 2009 के लोकसभा के आमचुनाव के बाद जब अखिलेश यादव ने फीरोजाबाद की सीट छोड़ दी थी, तो उस समय कांग्रेस ने राज बब्बर को ही अपना उम्मीदवार बनाया था और श्री बब्बर ने तब अखिलेश की पत्नी को वहां से पराजित कर डाला था। उसके कारण कांग्रेस को लगा होगा कि राज बब्बर के रूप मे उसके पास एक मजबूत और दमदार नेता मौजूद है, जो मुलायम परिवार पर भारी पड़ सकता है। संयोग से राज बब्बर ओबीसी भी हैं। वे स्वर्णकार जाति से आते हैं, लेकिन श्री बब्बर ने जाति पहचान की राजनीति नहीं की है। उनकी पहचान एक फिल्मी हीरो की है, जो कुछ फिल्मों में विलेन का रोल भी कर चुके हैं।
राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस ने शीला दीक्षित को वहां मुख्यमंत्री का अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। श्रीमति दीक्षित दिल्ली में 15 सालों तक लगातार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। वे मूल रूप से पंजाब के कपूरथला के एक धवन परिवार से हैं। उनकी शादी उमाशंकर दीक्षित के बेटे के साथ हुई थी और उमाशंकर दीक्षित उत्तर प्रदेश के ही थे। इस तरह शीला दीक्षित अपने को उत्तर प्रदेश की बहु कह सकती हैं और कहती भी रही हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में वे कभी दिल्ली की गंदगी के लिए तो कभी दिल्ली में होने वाले अपराधों या दिल्ली में लगने वाले सड़क जाम के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को जिम्मेदार बता दिया करती थीं। आलोचना होने पर वह कहती थीं कि वह तो खुद उत्तर प्रदेश की हैं, इसलिए वह उत्तर प्रदेश के बारे मे इस तरह की बात कर ही नहीं सकती।
शीला दीक्षित कन्नौज से लोकसभा का चुनाव भी जीत चुकी हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में वह नई भी नहीं है। कांग्रेस उनका चेहरा दिखाकर प्रदेश के ब्राह्मणों के बीच अपनी पैठ मजबूत करना चाहती है। ब्राह्मण उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 10 फीसदी हैं और पिछले कुछ चुनावों से हारजीत में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। उनका इस समय किसी पार्टी के प्रति कोई ज्यादा झुकाव भी नहीं है और वे किसी पार्टी में जा सकते हैं। कभी वे कांग्रेस के परंपरागत आधार हुआ करते थे, लेकिन मंदिर आंदोलन के कारण वे भाजपा की ओर आकृष्ट हुए। फिर बिखर गए। सवाल उठता है कि क्या शीक्षा दीक्षित के कारण वे एक बार फिर कांग्रेस की ओर झुकेंगे? वैसे शीला दीक्षित जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के लिए यह मुद्दा नहीं रहेगा, क्योंकि उनके साथ दीक्षित सरनेम जुड़ा हुआ है।
राम मंदिर आंदोलन और राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को छोड़ने वाले ब्राह्मण आज उत्तर प्रदेश में अधिकांशतः अनिर्णय की स्थिति में ही हैं। कांग्रेस ब्राह्मण बहुल इलाकों में ज्यादा से ज्यादा ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाकर उनका समर्थन जीत सकती है। इसलिए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करना एक अच्छी रणनीति है, लेकिन यदि कांग्रेस समझती है कि राज बब्बर के कारण वह ओबीसी को भी अपनी ओर खीच सकती है, तो वह मुगालते में है। (संवाद)
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति
क्या शीला और बब्बर पार्टी को पार लगा पाएंगे?
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-07-16 18:47
एक के बाद एक हार का सामना कर रही कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश में किसी तरह अपनी इज्जत बचाने की लड़ाई लड़ने जा रही है। 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले तो उसने सत्ता में आने का सपना भी देख रखा था। 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर जीत हासिल कर कांग्रेस उत्साहित थी और उसी समय से राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश का मिशन 2012 पर काम करना शुरू कर दिया था। राहुल व अन्य कांग्रेसियो को लग रहा था कि 2012 में पार्टी सत्ता में आ जाएगी। उसके लिए बहुत मेहनत की गई।