जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संघ भाजपा की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कभी मजबूत नहीं रही है, लेकिन पिछले साल हुए चुनाव में चार केन्द्रीय पदों में से एक पर उसकी जीत हो गई थी। उतना ही नहीं, 31 छात्र पार्षदों में उसके 11 छात्र पार्षद उम्मीदवार विजयी हुए थे। इस बार उसका कोई भी केन्द्रीय पद पर नहीं जीता और उसके मात्र एक छात्र परिषद की जीत हुई और वह भी विश्वविद्यालय के संस्कुत केन्द्र में।

जाहिर है भाजपा की छात्र ईकाई को जनेवि के छात्रों ने पूरी तरह नकार दिया। सच कहा जाय, तो पिछले 32 सालों में उसकी इतनी बड़ी हार कभी हुई ही नहीं। जब जनेवि में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के इक्के दुक्के सदस्य होते थे, तब भी दो या तीन पार्षद चुनाव जीत जाया करते थे, लेकिन इस बार तो वहां भी उसका सफाया हो गया। जीत सिर्फ संस्कृत केन्द्र में हुई। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां के छात्रों ने पूरी तरह से भाजपा को नकार दिया।

उसकी न केवल हार हुइ्र्र, बल्कि अधिकांश पदों पर उसके उम्मीदवार दूसरे स्थान पर भी नहीं रहे। जाहिर है भाजपा का छात्र संगठन जनेवि में हाशिए पर धकेल दिया गया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय की जीत जनेवि की हार के लिए दिलासा का कारण नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक के छात्र भी होते हैं, जो राजनैतिक रूप से ज्यादा परिपक्व नहीं होते, पर जनेवि स्नातकोत्तर और उससे भी ऊपर की पढ़ाई के छात्रों के लिए है और विदेशी भाषाओ के कुछ छात्रों को छोड़कर वहां के तमाम छात्र राजनैतिक रूप से परिपक्व होते हैं।

इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावी नतीजे धनबल से भी प्रभावित होते हैं। वहां करोड़ों रुपये चुनाव में पानी की तरह बहाए जाते हैं, जबकि जनेवि में ऐसा नहीं होता। दिल्ली विश्वविद्यालय में मत देने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत भी बहुत कम था। मात्र 36 फीसदी विद्यार्थियों ने ही वहां मत डाले, जबकि जनेवि में करीब 60 फीसदी विद्यार्थियों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। जाहिर है, दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकांश छात्रों ने किसी को भी वोट देना सही नहीं समझा। यानी भाजपा की छात्र ईकाई की जीत का कारण वहां के छात्रों की राजनैतिक उदासीनता थी न कि भाजपा के प्रति उनके उत्साह ने केन्द्र की इस सत्तारूढ़ पार्टी को जीत दिलाई।

छात्रों की जनसंख्या के लिहाज से जनेवि एक छोटा विश्वविद्यालय है, जहां 8 हजार छात्र ही हैं, लेकिन दो ऐसे तथ्य हैं, जिनके कारण भारतीय जनता पार्टी को अपने भविष्य के लिए परेशान होना ही चाहिए। पहला तथ्य तो यह है कि जनेवि में देश भर के छात्र आते हैं। इसलिए एक तरह से यह भाजपा को लेकर यह एक सैपल सर्वे रिपोर्ट से कम नहीं है। दूसरा तथ्य यह है कि इसमे पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं। एक लाख सालाना से कम आमदनी वाले परिवारों से आने वाले छात्रों की संख्या यहां कुल संख्या का करीब दो तिहाई है। इससे पता चलता है कि समाज के उन वर्गो में जिनकी आबादी बहुत ज्यादा है, भारतीय जनता पार्टी की साख गिर रही है।

इस हार से भारतीय जनता पार्टी को सीख लेनी चाहिए और दिल्ली विश्वविद्यालय की जीत से उसे नहीं इतराना चाहिए। इसका कारण यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय मे तो उसकी उस समय भी जीत होती थी, जब लोकसभा में उसके मात्र दो सांसद हुआ करते थे। भारतीय जनता पार्टी का सामाजिक आधार पिछले लोकसभा चुनाव में बढ़ा और उसे प्रतिबिंबित करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे भी उसकी लोकप्रियता बढ़ गई थी। उसके कारण ही पिछले साल के चुनाव मे उसका प्रदर्शन बेहतर रहा था। लेकिन अब उसकी लोकप्रियता वहां आज सबसे कम है।

आखिर ऐसा हुआ क्यों? इसका सबसे पहला कारण तो यही हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रवाद को अपने तरीके से पारिभाषित कर जनेवि को राष्ट्रविरोधियों का गढ़ कहना शुरू कर दिया था। यह 9 फरबरी की एक घटना के बाद शुरू हुआ, जब कुछ छात्र अफजल गुरू की मौत की बरसी मना रहे थे। पूरे देश में जनेवि के खिलाफ एक दुष्प्रचार शुरू हुआ।

दुष्प्रचार ही नहीं, बल्कि वहां के छात्र संघ के अध्यक्ष व कुछ अन्य छात्रों पर राजद्रोह का मुकदमा तक चला दिया गया। यही नहीं वहां के विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी छात्रों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी और राहत पाने के लिए उन छात्रों को बार बार अदालत जाना पड़ रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान तक उन छात्रों को अदालत से राहत की गुहार लगानी पड़ी है और अभी भी उन पर प्रशासन की ओर से पैदा किया संकट समाप्त नहीं हुआ है। आम धारणा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार के दबाव में ही वैसा कर रहा है।

भारतीय जनता पार्टी को इस हार से सबक लेते हुए राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा को बदलने की सोचना चाहिए। कुछ अपवादों को छोड़कर देश के सभी लोग प्रेम करते हैं और प्रेम करने का एकाधिकार भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े संगठनों ने ही नहीं ले रखा हैं।

भाजपा के लिए दूसरी सबक यही हो सकती है कि वह अपने विरोधियो ंके प्रति अपना रवैया बदले। सार्वजनिक और राजनैतिक जीवन में विरोधी होते ही होते हैं। हमें उन्हीे के साथ रहना और जीना हैं। वे हमें अप्रिय लग सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें अपनी असहिष्णुता का शिकार बना लें। अपने वैचारिक विरोधियो के प्रति सहिष्णु रवैया बनाने की सबक भाजपा को जनेवि की यह हार दे रही है। यदि भाजपा ने सही सीख नहीं ली, तो आने वाले अन्य चुनावों में भी उसे हार का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। (संवाद)