इस बैठक का बहिष्कार इसलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि भारत इसके खिलाफ है। बल्कि इसका बहिष्कार भारत इसलिए कर रहा है, क्योंकि यह बैठक पाकिस्तान में हो रही है। यदि बैठक कहीं और होती, तो भारत के प्रधानमंत्री वहां अवश्य जाते। गृहमंत्रियों की एक बैठक भी वहां हुई थी। हमारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह वहां गए भी थे, लेकिन उनका अनुभव बहुत खराब रहा था। बैठक में पाकिस्तान ने शालीनता और शिष्टता का उल्लंघन करते हुए द्विपक्षीय मुद्दों को उठा डाला था, जबकि यह एक बहुपक्षीय बैठक थी।
हमारे गृहमंत्री ने शालीनता के दायरे में रहकर मामले को संभाला और समय से पहले ही वहां से वापस आ गए। उसी समय लगने लगा था कि नरेन्द्र मोदी का दक्षेस के शिखर सम्मेलन मे ंजाना संभव नहीं हो पाएगा। दक्षेस के वित्तमंत्रियों की भी वहां बैठक थी। उस बैठक में वित्तमंत्री अरुण जेटली को जाना था, लेकिन वे वहां नहीं गए। उसके बाद तो लगभग पक्का हो गया कि प्रधानमंत्री नहीं जाएंगे। फिर भी सरकारी स्तर पर बताया गया कि प्रधानमंत्री की वहां जाने की मंशा बरकरार है।
उसके बाद उरी में हमला हुआ, जिसमें पाकिस्तान की संलिप्तता साफ साफ दिखाई दे रही है। उसके बाद भारत में युद्धोन्माद की स्थिति बन गई है। गैर जिम्मेदार टीवी चैनलों ने एक ऐसी स्थिति बना दी है, जिसमें भारत की सरकार वहां प्रधानमंत्री को भेजने की सोच भी नहीं सकती। सब लोग युद्ध करने की बाते कर रहे हैं। ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री वहां जा ही नहीं सकते।
भारत ही नहीं पाकिस्तान का माहौल भी तनावपूर्ण बना हुआ है। जिनता तनाव राजनाथ सिंह की यात्रा क ेदौरान पाकिस्तान में था, उससे कई गुना ज्यादा तनाव आज वहां बना हुआ है। पाकिस्तान का तनाव भी भारत के प्रधानमंत्री की वहां यात्रा करने की राह मंे बाधा है। जाहिर है, प्रधानमत्री ने पाकिस्तान की उस बैठक मे न जाने का निर्णय कर अच्छा ही किया।
लेकिन भारत के बिना दक्षेस का कोई मतलब ही नहीं होता। क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की खातिर उस संगठन का निर्माण किया गया है और इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण देश भारत है। उसके बिना न तो शिखर सम्मेलन का कोई मतलब है और न ही दक्षेस का।
भारत के बिना भी वैसे तकनीकी रूप से बैठक हो सकती है, लेकिन तीन अन्य देशों ने भी उसके बहिष्कार की बातें की है। कुल मिलाकर दक्षेस मे 8 सदस्य हैं और उनमें यदि 4 नहीं जायं, तो शायद तकनीकी रूप से भी वह सम्मेलन संभव नहीं है। हो सकता है कुछ और देश उसके बहिष्कार की घोषणा कर दें।
भारत, बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान द्वारा बहिष्कार की घोषणा के बाद चार अन्य जो रह जाते हैं उनमें पाकिस्तान के अलावा नेपाल, श्रीलंका और मालदीव हैं। नेपाल में तो दक्षेस का मुख्यालय ही है। इसलिए उसकी ज्यादा जिम्मेदारी बनती है और शायद वह इस तरह की घोषणा नहीं करे, लेकिन श्रीलंका ऐसी घोषणा कर सकता है।
बात सिर्फ एक शिखर सम्मेलन स्थगित होने की नहीं है, बल्कि संकट खुद इस संगठन पर ही मंडराने लगा है। यह सवाल पैदा हो रहा है कि क्या दक्षेस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा?
दक्षेस का गठन बहुत कठिनाई से हुआ था और इसमे वर्षों लग गए थे। खुद भारत इसके लिए बहुत उत्सुक नहीं था। बांग्लादेश के राष्ट्रपति जिया उर रहमान ने इसके लिए पहली बार गंभीर पहल की थी। उनकी उस पहल को नेपाल, भूटान और श्रीलंका का समर्थन मिला था। भारत इसके लिए बहुत इच्छुक नहीं था। उसे लग रहा था कि इसका गठन कर उसके पड़ोसी देश आपस में मिलकर उस पर दबाव बनाएंगे।
दूसरी तरफ पाकिस्तान भी इसके गठन के लिए तैयार नहीं था। उसे लगता था कि यह भारत की मुहिम है और इसके द्वारा वह दक्षिण एशिया के देशों पर अपनी चैधराहट स्थापित करना चाहता है। उसे लगता था कि अपने व्यापार को बढ़ाने और अपना आर्थिक वर्चस्व मजबूत करने के लिए भारत इस संगठन का गठन चाहता है।
जो भी हो, भारत और पाकिस्तान धीरे धीरे इसके गठन के लिए तैयार हो गया और 1985 में इसका गठन हो गया। उस समय इसमें मात्र 7 देश ही थे। अफगानिस्तान आठवां देश हो गया है। 8 देश इसकी बैठकों के पर्यवेक्षक भी हैं। उनमें अमेरिका, जापान और चीन भी शामिल हैं। भारत का पड़ोसी म्यान्मार भी पर्यवेक्षक देश है और वह अब इसकी सदस्यता चाहता है। रूस इसमें पर्यवेक्षक का दर्जा चाहता है। दक्षिण अफ्रीका पर्यवेक्षक नहीं है। इसके बावजूद यह इसकी बैठक में हिस्सा ले चुका है। जाहिर है, विश्व समुदाय की दिलचस्पी आकर्षित करने में दक्षेस सफल रहा है। इसलिए इसका वजूद समाप्त होना भारत के लिए कोई अच्छी बात नहीं होगी।
सच यह भी है कि दक्षेस का आंदोलन बहुत सफल नहीं रहा है। सदस्य देशों के द्विपक्षीय संबंध अच्छे नहीं होने के कारण यह बहुपक्षीय संगठन भी उचित परिणाम लेकर नहीं आया है। आपसी व्यापार इनका बहुत कम है। इसके सदस्य देशों का जो विश्व व्यापार है, उसका मात्र एक फीसदी ही ये आपस में करते हैं। जाहिर है, अभी इसे व्यापारिक सहयोग के मामले में अभी बहुत लंबी दूरी तय करनी है।
पर सवाल उठता है कि वह दूरी तय करने के लिए इसका वजूद कायम रह भी पाएगा या नहीं? यदि यह बहुत सफल नहीं हो पाया है, तो इसका सबसे बड़ा कारण भारत और पाकिस्तान के बीच का मतभेद है और उसी मतभेद के कारण वह अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। (संवाद)
संकट मे दक्षेस: पाकिस्तान नहीं जाएंगे मोदी
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-09-28 11:46
आगामी नंवबर महीने में हो रहे दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन के पाकिस्तान में होने वाले शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नहीं शामिल होने की घोषणा के बाद दक्षिण एशिया के इस क्षेत्रीय सहयोग संगठन के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है। भारत की घोषणा के बाद बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भूटान ने भी उसके बहिष्कार के संकेत दे डाले हैं। इस संगठन में इस समय कुल 8 सदस्य हैं और उनमें चार यदि उसका बहिष्कार कर दें, तो फिर शिखर बैठक का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है।