उत्तर प्रदेश में हो रहा यह चुनाव वहां की चारों प्रमुख पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है। मायावती के लिए तो यह अस्तित्व की लड़ाई है। यदि इस चुनाव में वह फिसल गईं, तो फिर उबरना उनके लिए लगभग नामुमकिन हो जाएगा। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीटें नहीं मिली थीं, हालांकि उसे 20 फीसदी के आसपास मत मिले थे। अभी उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा में दूसरी सबसे बडी पार्टी और मुख्य विपक्षी दल है। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी को 80 सीटें मिली थीं। कायदे से समाजवादी पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान का फायदा उनकी बसपा को ही मिलना चाहिए, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो पाया और उनकी सरकार नहीं बन पाई, तो अगले चुनाव का सामना करना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। इसका कारण है कि उनकी पार्टी अब अपना वैचारिक आधार खो चुकी है और विशुद्ध अवसरवादी जातीय समीकरण की मुहताज हो गई है। उनकी हार के संभावना को देखते ही अवसरवादी तत्व उनका साथ छोड़ देंगे और वैचारिक आधार कमजोर होने के कारण वैचारिक लोग तो उनकी पार्टी छोड़ेंगे ही।
भारतीय जनता पार्टी के लिए भी यह चुनाव न केवल प्रतिष्ठा का चुनाव है, बल्कि देश की राजनीति में वर्चस्व बनाए रखने के लिए उसका यहां जीतना बहुत जरूरी है। केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी बहुमत मे उत्तर प्रदेश में हुई शानदार जीत के कारण ही है। यहां उसे 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और दो अन्य सीटें उसके सहयोगी अपना दल को मिली थीं। यदि उत्तर प्रदेश मे इसकी करारी हार हो जाती है और एक बार फिर वह तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में उभर कर सामने आती है, तो उसके लिए 2019 के चुनाव में बहुमत हासिल करने पर सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा। इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ओबीसी होने के तथ्य को भी भारतीय जनता पार्टी भुनाने की कोशिश करेगी और प्रदेश का अध्यक्ष पहले ही एक कुशवाहा ओबीसी को बना दिया गया है। इस चुनाव के नतीजे से पता चल जाएगा कि भाजपा का ओबीसी कार्ड अब भी चल रहा है या नहीं।
समाजवादी पार्टी सत्ता में है और यह एक बार फिर सत्ता में आने के लिए पूरा जोर लगा रही है। इसके नेता मुलायम सिंह यादव के लिए यह चुनाव निजी रूप से बहुत मायने रखता है, क्योंकि अधिक उम्र होने के कारण 2019 का लोकसभा चुनाव शायद उनका अंतिम चुनाव साबित हो और उसके पहले पार्टी को दुरुस्त रखना उनके लिए निहायत जरूरी है। पार्टी की दुरुस्ती के लिए जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में एक बार फिर समाजवादी पार्टी की सरकार बने। सरकार बनाने की स्थिति में ही 2019 के चुनाव के पहले मुलायम सिंह यादव किसी भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कर पाएंगे।
जीत हासिल करने के लिए मुलायम सिंह यादव ने इस बार अखिलेश यादव पर दाव लगाना उचित नहीं समझा है और वे खुद पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं और प्रदेश की कमान उन्होंने अपने छोटे भाई शिवपाल के हाथ में थमा दी है। शिवपाल मुलायम के निर्देशों के आधार पर पार्टी को संगठित कर रहे हैं और सभी पुराने आजमाये गए तरीकों को एक बार फिर मुलायम आजमाने जा रहे हैं। बेटे की छवि पर चुनाव लड़ने का उनका कोई इरादा नहीं है। उन्हें लगता है कि लोकसभा चुनाव मे उन्होंने सबकुछ अपने मुख्यमंत्री बेटे पर छोड़ दिया था और पार्टी हार गई। इसलिए वे एक बार फिर अखिलेश पर सबकुछ छोड़कर फिर हारने का रिस्क नहीं ले रहे।
कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए यह चुनाव जीवन और मरन का चुनाव बन गया है। कांग्रेस की इज्जत यहां दांव पर लगी हुई है। पिछले लोकसभा चुनाव में सीटों की संख्या के हिसाब से भले इसकी स्थिति बसपा से बेहतर रही हो, लेकिन मत प्रतिशत के हिसाब से यह चैथे नंबर की पार्टी थी। इस बार इसके सामने सिंगल डिजिट की पार्टी बन जाने का खतरा पैदा हो गया है। यानी डर है कि कहीं कांग्रेस को 10 सीटें भी नहीं आए। 2011 के चुनाव में कांग्रेस बिहार में 4 सीटों पर ही जीत पाई थी। दिल्ली में तो पिछले साल हुए चुनाव में उसे एक भी सीट नहीं मिली। हरियाणा में भी वह तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है। महाराष्ट्र में भी वह तीसरे स्थान के लिए एनसीपी के साथ संघर्ष करती दिखाई पड़ रही है।
वैसी स्थिति में उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन करना उसके लिए बहुत जरूरी है। बेहतर प्रदेर्शन से मतलब यह नहीं है कि वह सरकार बना ले, या सरकार बनाने की स्थिति मे पहुंच जाय। सच तो यह है कि वह वहां इस चुनाव में भी चैथे स्थान की पार्टी बने रहने को अभिशप्त है, क्योंकि तीन अन्य पार्टियों के पास उससे बड़ी चुनावी आधार है और उनकी तैयारियां भी बेहतर है। कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा यही कर सकती है कि चैथे स्थान पर रहते हुए भी अपनी सीटों की संख्या को कुछ बेहतर कर ले। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 28 सीटें मिली थीं। इस बार यदि उतनी सीटें भी मिल गईं, तो कांग्रेस अपने को धन्य समझेंगी और विधानसभा के त्रिशंकु होने की स्थिति मे अपनी कुछ राजनैतिक भूमिका को लेकर आश्वस्त हो सकती है। पर यहां तो खतरा है कि कहीं दिल्ली की तरह पार्टी पूरी तरह साफ न हो जाय। इसलिए कांग्रेस के लिए यह चुनाव भी उतना ही मायने रखता है, जितना भाजपा, बसपा और सपा के लिए रखता है। (संवाद)
उत्तर प्रदेश का संग्रामः चारों मुख्य पार्टियों की प्रतिष्ठा दांव पर
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-10-10 13:30
राहुल गांधी अपनी किसान यात्रा का समापन कर चुके हैं। यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक खाट सभाओं को भी संबोधित किया। उन खाट सभाओं में स्रोताओं और वक्ताओं को खाट पर बैठाया जाता था। राहुल गांधी खुद खाट पर बैठते थे। किसानों और गांवों से जुड़ने का राहुल गांधी का यह एक अभूतपूर्व तरीका था। वे किसानों से जुड़ने में कितने सफल हो पाए, इसके बारे में दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तो जरूर है कि उनकी सभाओं में आने वाले लोगों की संख्या अच्छी खासा थी। किसान यात्रा के दौरान आयोजित रोड शो में भी लोगों की अच्छी भागीदारी देखी गई। जाहिर है, अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों मे जोश भर देने के लिहाज से राहुल की यात्रा सफल रही। पर सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी की यह किसान यात्रा और खाट सभाएं देश की सबसे बड़ी आबादी वाले इस प्रदेश मे कांग्रेस की इज्जत बचा पाएंगी?