मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अपने बेटे को अपनी जगह मुख्यमंत्री 2012 में ही बना दिया था। बिहार में लालू यादव अपने बेटों को अपनी जगह दे रहे हैं। तेलंगाना के चन्द्रशेखर राव का यही हाल है और आंध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू ने भी अपने बेटे को आगे बढ़ा रखा है। जम्मू और कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस तो वंशवाद का गढ़ बना ही हुआ है, मुफ्ती की पीडीपी का भी वही हाल है। फारुक अब्दुला के बाद उनके बेटे उमर अब्दुल्ला उनकी जगह ले चुके हैं, तो महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता की जगह ले ली है।
तमिलनाडु में भी करुणानिधि ने अपने परिवार को राजनीति में बढ़ा रखा था और किसी को शक नहीं था कि वे अपने बेटे में से ही किसी को अपना वारिस घोषित करेंगे। वैसे उन्होंने अपनी बेटी को भी बढ़ा रखा है। बेटों में भी वे स्टालिन को महत्व दे रहे थे। फिर भी उन्होंने अभी तक उन्हें औपचारिक रूप से अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था। पिछले विधानसभा चुनाव में भले चुनाव अभियान की बागडोर स्टालिन के हाथ में थी, लेकिन मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार खुद करुणानिधि ही थे और वे पार्टी के अध्यक्ष भी थे।
पार्टी के अध्यक्ष को करुणानिधि अभी भी हैं, लेकिन अब उन्होंने यह घोषित कर दिया है कि उनके बाद पार्टी का अध्यक्ष कौन होगा। इस तरह आने वाले किसी संभावित विवाद की आशंका को उन्होंने निरस्त कर दिया है। यही कारण है कि अब उनकी पार्टी डीएमके राहत की सांस ले रही है।
उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि अपने जेल जाने के समय से स्टालिन काफी कठिनाइयों का सामना कर रहे थे। कठिनाइयों का सामना करते हुए वे आगे बढ़ते गए और उन्होंने अपने आपको उस स्थान पर स्थापित कर लिया है, जब वे पार्टी का अध्यक्ष बन सकते हैं। उन्होंने कहा कि अब वे मेरे राजनैतिक उत्तराधिकारी है।
स्टालिन के पास अपने पिता वाला करिश्मा नहीं है। उनके पास वह प्रसिद्धी भी नहीं है, जो करुणानिधि ने एक लेखक के रूप में प्राप्त की थी। लेकिन स्टालिन बहुत ही मेहनती है। वे अपने पिता के मातहत पिछले 4 दशकों से काम कर रहे हैं और उन्होने भी राजनीति में महारत प्राप्त कर ली है।
इसमें कोई शक नहीं कि डीएमके में अध्यक्ष का चुनाव होता है और चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही करुणानिधि बार बार अध्यक्ष बनते रहे हैं। उत्तराधिकारी पर सवाल पूछे जाने पर करुणानिधि कहा करते थे कि पार्टी ही उनके उत्तराधिकारी का चुनाव करेगी। इसलिए अपने उत्तराधिकारी की इस तरह घोषणा करना करुणानिधि की मूल छवि के खिलाफ ही जाता है।
हैरत की बात यह है कि डीएमके एक ऐसी पार्टी थी, जो वंशवाद की पक्षधर नहीं थी। इसकी स्थापना सी एन अन्नादुरै ने की थी। उनका निधन 1969 में हुआ तो उनके बाद मुख्यमंत्री का पद करुणानिधि के पास आ गया, जबकि उस समय अन्नादुरै के मंत्रिमंडल में दूसरे स्थान पर नेदुनसेझियन थे। 1971 का चुनाव डीएमके ने करुणानिधि के नेतृत्व में ही जीता। लेकिन 1972 में एमजी रामचन्द्रन से पार्टी में विभाजन करा दिया और आल इंडिया अन्ना डीएमके नाम की पार्टी बना ली। उसके बाद 13 सालों तक करुणानिधि की पार्टी विपक्ष में ही रही। लेकिन विपक्ष में रहने के बावजूद करुणानिधि के नेतृत्व में वह पार्टी मजबूत बनी रही।
एमजीआर का निधन 1987 में हो गया और 1989 में करुणानिधि की डीएमके ने एक बार फिर सत्ता में वापसी की। उसके बाद तो एक चुनाव छोड़कर अगला चुनाव उनकी पार्टी जीतती रही। पिछला चुनाव ही अपवाद है, जब करुणानिधि की पार्टी लगातार दूसरी बार भी चुनाव हारी।
स्टालिन को करुणानिधि से अपना उत्तराधिकारी तो घोषित कर दिया है, लेकिन इसके साथ यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जबतक वे जिंदा रहेंगे, अपनी पार्टी के अध्यक्ष के पद पर बने रहेंगे। जयललिता का स्वास्थ्य खराब हो गया है और करुणानिधि उम्रदराज हो गये हैं। इसके कारण तमिलनाडु की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर आ गई है। (संवाद)
करुणानिधि ने स्टालिन को अपना वारिस घोषित किया
डीएमके ले रही है राहत की सांस
कल्याणी शंकर - 2016-10-28 11:27
भारत में वंशवाद की राजनीति लगातर मजबूत होती जा रही है। पार्टियों के नेता अपने परिवार के सदस्यों को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रहे हैं। सोनिया गांधी तो खुद वंशवाद की पैदाइश हैं और उन्होंने राहुल गांधी को अपना वारिस अघोषित रूप से घोषित कर रखा है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, जो शिरोमणि अकाली दल के नेता हैं, अपना उत्तराधिकारी अपने बेटे सुखबीर बादल को घोषित कर चुके हैं।