अब अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव के लिए महागठबंधन की बात चल रही है और बात की शुरुआत की है समाजवादी पार्टी ने। यह वही पार्टी है, जिसने बिहार के महागठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया था। हालांकि एक काम समाजवादी पार्टी ने वहां जरूर करवा दिया था। लालू यादव नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार मानने के लिए आसानी से तैयार नहीं हो रहे थे। मुलायम सिंह यादव ने लालू यादव पर दबाव बनाकर उन्हें नीतीश को महागठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने के लिए राजी कर लिया था। पर बाद मे समाजवादी पार्टी खुद उसमें शामिल नहीं हुई।
अब उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के लिए यह चुनाव जीतना आसान नहीं है। सत्ता विरोधी लहर और दलित मुस्लिम समीकरण के द्वारा मायावती सत्ता में आने की पुरजोर कोशिश कर रही है, तो भारतीय जनता पार्टी भी पूरी ताकत से यहां का चुनाव जीतने के लिए तत्पर है। उसकी कोशिश अगड़ी जातियों के साथ साथ पिछड़ी जातियों के एक तबके का समर्थन हासिल करने की है। जातिवादी समीकरण के अलावा वह सांप्रदायिक टकराव का सहारा भी ले सकती है और इसके लिए मंदिर के मुद्दे को भी भड़काया जा सकता है। पाकिस्तानी विरोधी भावना का इस्तेमाल करने की भी वह कोशिश कर रही है।
जाहिर है, समाजवादी पार्टी दो सशक्त विरोधियों का सामना कर रही है। पिछले चुनाव में उसे 30 फीसदी के आसपास ही मत मिले थे। यदि उसमें दो फीसदी की भी कमी आती है, तो सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है और यदि 5 फीसदी की कमी आती है, तो वह तीसरे स्थान पर भी जा सकती है। इस बीच पार्टी के अंदर भी महाभारत हो रही है। चाचा और भतीजे की लड़ाई को बहुत मुश्किल से विभाजन में तब्दील होने से मुलायम ने रोक रखा है। इस महाभारत के बीच महागठबंधन की बात उछालना हैरतअंगेज घटना लगती है। लेकिन मुलायम सिंह एक मंजे हुए राजनेता हैं। उन्हे राजनीति के अनेक उत्थान और पतन देखे हैं और राजनीति की जमीनी हकीकत की समझ भी रखते हैं।
गठबंधन की राजनीति की बात कर सबसे पहले तो उन्होंने अपने बेटे और भाई को अलग अलग मोर्चे पर लगा दिया है। बेटा प्रदेश की सरकार चला रहे हैं और प्रदेश भर मे एक चुनावी अभियान पर पूरी तैयारी के साथ निकलने वाले हैं। जिस माहौल मे ंयह यात्रा निकल रही है, उसमे ंयह सहज कहा जा सकता है कि उसमें भारी भीड़ उमड़ेगी और मायावती और भारतीय जनता पार्टी के होश भी उड़ सकते हैं। अपने बेटे को सरकार संभालने और यात्रा निकालने का जिम्मा देकर मुलायम ने अपने भाई शिवपाल को गठबंधन के काम पर लगा दिया है। बिहार में हो रहे महागठबंधन के भी शिवपाल पक्षधर थे, लेकिन राम गोपाल यादव के कड़े विरोध के कारण वहां महागठबंधन में पार्टी शामिल नहीं हो सकी थी। अब रामगोपाल पार्टी से बाहर किए जा चुके हैं और शिवपाल केा प्रदेश में पार्टी और गठबंधन बनाने का जिम्मा देकर मुलायम भाई और बेटे के बीच मे हो रहे टकराव को टालने में कुछ हद तक सफल भी हो रहे हैं।
महागठबंधन सत्ता में दुबारा आने के लिए भी जरूरी है। मुलायम सिंह अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात चला रहे हैं। दोनो पार्टियों के पास कुछ वोट तो हैं ही। यदि उन दोनों के कारण 5 फीसदी वोटों का भी इजाफा हो जाता है, तो समाजवादी पार्टी अपने गठबंधन के साथ एक बार फिर सत्ता में आने की उम्मीद पाल सकती है, भले ही उसे खुद अपने चुनाव चिन्ह पर जीतने वाले उम्मीदवारों की संख्या बहुमत पा नहीं कर पाए। मुलायम की कोशिश लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल और जद(यू) को भी महागठबंधन में शामिल करने की है। दोनो पार्टियों का उत्तर प्रदेश में कोई जनाधार नहीं है, लेकिन लालू यादव एक करिश्माई वक्ता हैं और यदि उन्होंने बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में धुृंआधार भाषण किया, तो भाजपा की ओबीसी वोटरो में प्रवेश करना कठिन हो जाएगा, क्योंकि लालू ओबीसी मतदाताओं के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं और ओबीसी को लेकर भाजपा की दुखती रग क्या है, इसे भी वे अच्छी तरह जानते हैं। बिहार में भाजपा की हार की मुख्य वजह भी लालू का धुंआधार भाषण ही था। सच कहा जाय, तो भाजपा को पराजित करने के लिए लालू के तरकश में जितने तीर हैं, उतने किसी अन्य नेता के पास नहीं हैं।
वैसे लालू यादव समाजवादी पार्टी से किसी प्रकार का गठबंधन करने की चर्चा के पहले ही कह चुके हैं कि वे वहां समाजवादी पार्टी के लिए प्रचार करेंगे। जब औपचारिक रूप से वे महागठबंधन में आ जाते हैं, तो समाजवादी पार्टी और उसे गठबंधन के मत प्रतिशत बढ़ा देने की क्षमता निश्चित तौर पर लालू यादव रखते हैं।
नीतीश कुमार की पार्टी के पास भी उत्तर प्रदेश में कुछ नहीं है, लेकिन खुद नीतीश कुमार का अपना व्यक्तित्व है और वे भी नरेन्द्र मोदी पर तीखे हमले के लिए जाने जाते हैं। मोदी पर हमले में वे तथ्यों का अधिकाधिक सहारा लेते हैं और उसके कारण भाजपा के रणनीतिकार भी सांसत में पड़ जाते हैं। इसके अलावा नीतीश की जाति के लोगो की संख्या उत्तर प्रदेश में अच्छी खासी है, लेकिन उनमें यादव विरोधी भावना व्याप्त हो गई है। नीतीश के कारण उनका यादव विरोध कुछ कम हो सकता है और इससे समाजवादी पार्टी के मतप्रतिशत कुछ बढ़ सकते हैं।
इस महागठबंधन का मनोवैज्ञानिक असर मुस्लिम मतदाताओं पर भी पड़ेगा, जो उसी पक्ष की ओर ज्यादा आकर्षित होंगे, जो भाजपा को हराने की ज्यादा क्षमता रखते हैं। इसके कारण वे समाजवादी पार्टी के साथ बने रह सकते हैं। महागठबंधन की अवधारणा तो अच्छी है, लेकिन असली समस्या यह है कि क्या यह संभव हो पाता है और यदि होता है तो किस हद तक? (संवाद)
एक बार फिर महागठबंधन की गूंज
किस हद तक संभव है यह?
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-10-29 10:08
एक बार फिर महागठबंधन की चर्चा जोरों पर है। पिछले साल जब बिहार में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, तो इसकी खूब चर्चा हुई थी। एक महागठबंधन बना भी था और उसकी जीत भी हो गई थी, हालांकि उस महागठबंधन में सिर्फ तीन पार्टियां ही शामिल थीं। दूसरी तरफ भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में चार पार्टियां शामिल थी, फिर भी तीन पार्टियों के गठबंधन को ही महागठबंधन कहा गया। उसमें कुछ और पार्टियों को भी शामिल होना था, लेकिन वे शामिल नहीं हुईं। जैसे एनसीपी और समाजवादी पार्टी को भी शामिल होना था, लेकिन ये दोनों पार्टियां उसमें नहीं शामिल हुई थीं।