दिल्ली देश की राजधानी है और इसलिए प्रदूषण की समस्या हल करने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकार दोनों की है। केन्द्र सरकार के पास ज्यादा संसाधन हैं और कानून बनाने के ज्यादातर अधिकार भी उसी के पास हैं। नीतिगत फैसला करने में भी वह प्रदेश सरकार से बेहतर स्थिति मे हैं। अपने प्रतिनिधि उपराज्यपाल के द्वारा केन्द्र की सरकार दिल्ली की प्रदेश सरकार को भी नियंत्रित करती है, इसलिए केजरीवाल की सरकार से ज्यादा जिम्मेदारी उसके ऊपर है। लेकिन दुर्भाग्य से केन्द्र सरकार उतनी गंभीर नहीं दिखाई पड़ रही, जितनी गंभीरता के केजरीवाल सरकार ने इस समस्या को लिया है।

लेकिन केजरीवाल सरकार की गंभीरता ओस चाटकर प्यास बुझाने जैसी ही है। उन्होंने 3 दिनों के लिए दिल्ली के सारे विद्यालयों को बंद कर दिया है, लेकिन यह समस्या तीन दिन में ही समाप्त नहीं होने वाली है। छात्रों को घर में बैठाकर तीन दिनों तक उनके स्वास्थ्य को बिगड़ने से रोका तो जा सकता है, लेकिन इससे प्रदूषण को प्रभावित नहीं किया जा सकता। स्कूलों में छुट्टियां करने के अलावा केजरीवाल सरकार ने 5 दिनों तक निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी है। लेकिन पांच दिनों के बाद क्या होगा? और वैसे ही अनधिकृत निर्माण कार्यों पर न तो अदालती आदेश का कोई असर होता है और न ही प्रशासनिक आदेश का। इसलिए यह प्रतिबंधित दिनों में भी बहुत प्रभावी नहीं होने वाला है। बदरपुर में बिजली का उत्पादन होता है और उसके कारण भी प्रदूषण बढ़ता है। केजरीवाल सरकार ने वहां बिजली के उत्पादन पर 10 दिनों तक रोक लगा दी है। लेकिन 10 दिनों के बाद क्या होगा?

केजरीवाल सरकार ने जो भी निर्णय किए हैं, वे सराहनीय हैं। न मामा से काना मामा अच्छा होता है, लेकिन उन्होंने जो कदम उठाए हैं, उनसे समस्या का समाधान नहीं होता। समस्या क्या है और उसका समाघान क्या है, यह दिल्ली में किसी से छिपा हुआ नहीं है, लेकिन जिसे उस समाधान तक पहुंचने के लिए कदम उठाना है, वह कदम उठाने के लिए तैयार ही नहीं। जब प्रदूषण का स्तर सीमा से कई गुना बढ़ता है, तब हल्ला हंगामा होता रहता है। थोड़ी सी राहत मिली नहीं कि पहले की तरह सबकुछ सामान्य सा हो जाता है। वैसे राहत तो मिलती ही नहीं है, क्योंकि प्रदूषण का स्तर साल पर सामान्य से ज्यादा ही रहता हैं। अंतर यह होता है कि जाड़े के दिनों में यह कई गुना ज्यादा हो जाता है और जानलेवा हो जाता है।

पर इस साल यह कुछ ज्यादा ही जानलेवा है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में प्रतिवर्ष मरने वाले लोगांे की संख्या 10 से 15 हजार की है। यह कोई छोटी संख्या नहीं है। 1952 में लंदन जब स्माॅग का शिकार हुआ था, तो उस स्माॅग ने वहां के 4 हजार लोगो की जान ले ली थी। दिल्ली में भी प्रदूषण का स्तर 1952 वाले लंदन के प्रदूषण के स्तर तक पहुंच गया है। बस अंतर यह है कि सल्फर डायक्साइड का प्रदूषण दिल्ली में उतना नहीं है, जितना लंदन में 1952 में था। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रदूषण के सबसे खराब दिन आने अभी बाकी हैं। वे खराब दिन 15 दिसंबर से शुरू होकर 15 जनवरी तक रहते हैं।

जिस हल्के तरीके से दिल्ली के प्रदूषण को लिया जा रहा है, वह बहुत हमें बहुत ही भयानक दौर में ले जा रहा है। हम प्रदूषण बम पर बैठे हैं और यदि हमने इसे विस्फोट होने से नहीं रोका, तो प्रदूषण से दिल्ली मे मरने वालों की संख्या गिनना भी मुश्किल हो जाएगा। जिस तरह लोग पहले प्लेग और हैजा से मरते थे, उसी तरह लोग प्रदूषण से मरने लगेंगे।

सरकार को पता है कि क्या करना चाहिए, लेकिन उसमें करने की संकल्पशक्ति नहीं है। सबसे पहले तो उसे निजी गाड़ियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। केजरीवाल सरकार ने आॅड इवन के द्वारा दिल्ली में प्रदूषण पर नियंत्रण करने का परीक्षण किया था। उनका दावा है कि परीक्षण सफल रहा। पर सवाल उठता है कि यदि प्रशिक्षण सफल रहा, तो फिर उसे साल भर के लिए लागू क्यों नहंीं किया जा रहा है? यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि पब्लिक परिवहन व्यवस्था को बेहतर किया बिना निजी गाड़ियों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने से रोक कौन रहा है? यदि प्रदूषण की महामारी से दिल्ली के लोगों पर खतरा है, तो आॅड इवन क्या, निजी गाड़ियों पर लगभग पूर्ण प्रतिबंध भी लगाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए राजनैतिक इस्पाती इच्छा शक्ति चाहिए। और वह इच्छा शक्ति हमारे राजनेताओं के पास है ही नहीं, जिसके कारण दिल्ली ही नहीं, बल्कि अनेक नगर और महानगर प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं और उसके कारण लोगों को तरह तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना पड़ रहा है।

दिल्ली का यह प्रदूषण मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान को भी मुह चिढ़ा रहा है। जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उस हवा तक को आप स्वच्छ नहीं रख पा रहे हैं, फिर आप किस तरह का स्वच्छता अभियान चला रहे हैं? (संवाद)