नोटबंदी की असली परीक्षा तो अगले साल के शुरुआती महीनों में होने वाले पांच प्रदेशों के चुनाव में होने वाली है। ये पांच राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणीपुर और गोवा। इनमें गोवा में भाजपा की सरकार है। पंजाब में भी भाजपा अकाली दल के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शामिल है। उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार है। वहां पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 31 सीटें और कांग्रेस का 32 सीटें मिली थीं। बसपा, उत्तराखंड क्रांति दल और निर्दलीयों के सहायता से कांग्रेस ने 70 सदस्यों वाले सदन में अपने बहुमत का जुगाड़ कर लिया था। मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है, जबकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है और बसपा विधानसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है।

इन चुनावों में नोटबंदी सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा रहेगा। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसकी घोषणा की थी, तो उसका देश भर में भारी स्वागत किया गया था और प्रधानमंत्री के कुछ आलोचक तो यह आरोप भी लगा रहे थे कि विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर ही वह घोषणा की गई थी। एक बार तो लोगों को लगा कि काले धन पर इस बार सबसे जबर्दस्त हमला हुआ है और जिन्होंने काली कमाई करके अरबों और करोड़ो इकट्ठा कर रखा है, उनका काला धन तो अब मिट्टी में मिल गया। 8 नवंबर को प्रधानमंत्री ने खुद कहा था कि उस दिन की 12 बजे रात से 500 और 1000 रुपये मे रखे काले धन रद्दी में तब्दील हो जाएंगे।

लेकिन वैसा हुआ नहीं है। काले धन को किसी न किसी तरह बैंकों में जमा करा दिया गया है। यह सच है कि आयकर की सीमा से ज्यादा जमा कराए गए धन पर सरकार टैक्स लगाएगी, लेकिन टैक्स के बाद जो धन बचेगा, वह तो सफेद हो ही जाएगा। और सरकार ने काले धन के मालिको के एक एक और योजना पेश कर दी है, जिसके तहत 50 फीसदी टैक्स देकर कोई भी अपने काले धन को सफेद कर सकता है। उसके सफेद धन में 50 फीसदी तो उसे तत्काल मिल जाएंगे और शेष 50 फीसदी 4 साल के बाद मिलेंगे।

इस तरह जिस धन को रद्दी में बदलने का दावा प्रधनमंत्री कर रहे थे, उस धन को उन्होंने खुद सफेद बनाने का इंतजाम भी कर दिया। इसके साथ साथ उनका वह वादा भी गलत साबित हो गया है कि इसके कारण होने वाली परेशानियां कुछ दिनों के लिए ही हैं। पहले उन्होंने कुछ दिन की परेशानी बताई थी। बाद मे उन्होंने लोगों से 50 दिन मांगे, हालांकि 50 दिन कम नहीं होते। अब प्रधानमंत्री एक बार फिर पलटी खा रहे हैं और वे कह रहे हैं कि 50 दिनों तक तो परेशानियां बढ़ेगी, पर उसका बाद परेशानियों का बढ़ना समाप्त हो जाएगा। कबतक परेशानियां समाप्त होंगी, इसके बारे में प्रधानमंत्री कुछ नहीं बोल रहे हैं।

लेकिन यदि 30 दिसंबर के बाद भी परेशानियां बढ़ती रहीं, तो फिर प्रधानमंत्री जी क्या कहेंगे? उन्होंने गोवा में भाषण देते हुए कहा था कि यदि 30 दिसंबर के बाद लोगों को परेशानी रहे, तो देश के लोग उन्हें चैराहे पर खड़ा कर दें और फिर उनके साथ जो करने का मन रहे, वे करें। लेकिन अब वे कह रहे हैं कि 30 दिसंबर को परेशानी खत्म नहीं होने वाली है, बल्कि उसके बाद धीरे धीरे कम होने लगेगी।

पर जो देश की अर्थव्यवस्था और बैंकों के बारे में जानता है, उसे पता है कि 30 तारीख से बैंकों मे वेतन और पेंशन भी आने लगते हैं और पेशन व वेतन पाने वाले लोगों की भीड़ बैंकों में जमा हो जाती। लोग अपने मासिक बिलों का भुगतान भी महीने के पहले सप्ताह में ही करते हैं और उसके कारण भी बैंकों पर कामकाम का बोझ बढ़ जाता है। जाहिर है अगले साल के जनवरी महीने का पहला सप्ताह भी बैंकों में अफरातफरी को सप्ताह होगा और वहां काफी लंबी लंबी कतारें लगेंगी। लंबी कतारें एक बार फिर प्रधानमंत्री के दावे को गलत साबित कर देंगी। यानी प्रधानमंत्री का यह दावा कि 30 दिसंबर के बाद कठिनाई थोड़ी थोड़ी घटेगी, एक बार फिर गलत साबित हो जाएगा। कहने का मतलब कि प्रधानमंत्री लगातार तीन बार अपने अनुमान में गलत हो जाएंगे। तो क्या फिर वे लोगों के सामने चैराहे पर खड़ा होने के लिए तैयार हो जाएंगे?

और स्थिति तो तब सामान्य मानी जाएगी, जब लोगांे द्वारा बैंकों अथवा एटीम से पैसा निकालने के लिए तय अधिकतम राशि समाप्त कर दी जाय। क्या 30 दिसंबर तक बैंकों के पास इतने कैश आ जाएंगे कि वह लोगों की मांग के अनुसार कैश का भुगतान करने लगेंगे? अभी तक जो संदेश बैंकों से मिल रहे हैं, उससे तो यह लगता है कि कैश भुगतान पर की गई हदबंदी जारी रहेगी, क्योंकि बैंकों के पास पर्याप्त रकम हैं ही नहीं।

जाहिर है प्रधानमंत्री के सामने विश्वसनीयता का भारी संकट पैदा होने वाला है। वे लगातार अपनी पहले कही गई बातों को काटते रहे हैं। अगले साल जनवरी महीने के पहले सप्ताह में जब एक बार फिर बैंकों के सामने लंबी कतारें चीख चीख कर लोगांे की परेशानी और बैंकांे की नाकामी का बखान करेंगी, तो फिर प्रधानमंत्री क्या एक बार फिर अपनी छोटी अवधि को फिर से पारिभाषित करेंगे? वे कुछ न कुछ तो कहेंगे ही, लेकिन उनकी बातों को लोग अब कितनी गंभीरता से लेंगे? (संवाद)