पहली बात तो यह है कि राजनैतिक पार्टियों को अपने चंदे पर आयकर चुकाना नहीं पड़ता। इसमें बुरा भी नहीं है, क्योंकि राजनैतिक पार्टियों को आधिकारिक तौर पर व्यापारिक प्रतिष्ठान नहीं माना जाता। इसलिए मायावती की पार्टी पर यह आरोप नहीं लगेगा कि जो राशि बैंक में पाई गई है, उस पर टैक्स नहीं चुकाया गया था।

लेकिन सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि 20 हजार रूपये से कम के चंदे का हिसाब रखना या देना राजनैतिक पार्टियों के लिए जरूरी नहीं होता है। इसलिए यदि मायावती कह देती हैं कि उन्हें यह चंदा हजारो लाखों लोगों ने दिए और सारे लोगों ने 20 हजार रुपये से कम चंदे अलग अलग दिए, तो फिर उनसे चंदा देने वालों का नाम और पता नहीं पूछा जा सकता।

मायावती की पार्टी के करोड़ों समर्थक हैं। उनकी बड़ी बड़ी रैलियां आयोजित होती रही हैं और उन रैलियों में लाखों लोग शिरकत करते रहे हैं। सच कहा जाय, तो जितनी बड़ी बड़ी रैलियां उत्तर प्रदेश में मायावती की हुई हैं, उनसे बड़ी रैली और किसी की नहीं हुई। मायावती के समर्थक ज्यादातर गरीब तबके के ही लोग हैं, जो चाहकर भी पार्टी को ज्यादा चंदा नहीं दे सकते। इसलिए मायावती यदि यह कहती हैं कि उनकी पार्टी के लाखों समर्थकों ने हजार हजार रुपये के चंदे दिए, तो सब मिलाकर अरबों रुपये चंदे इकट्ठे हो जाते हैं। फिर कोई कैसे उनकी 104 करोड़ रुपये की राशि को राजनैतिक चंदा मानने से इनकार कर सकता है।

104 करोड़ रुपये तो मात्र एक ही बैंक शाखा में जमा किए गए। उसके पहले भी उसमें रुपये रहे होंगे और पार्टी की अनेक बैंकों की अनेक शाखाओं में खाते होंगे और उन सबमें पैसे जमा कराए गए होंगें। यानी अरबों या खरब तक में भी पार्टी का फंड जमा हो सकता है। इसके बावजूद मौजूदा कानूनों के तहत उस जमा राशि को न तो काला धन साबित किया जा सकता और न ही उसके लिए बसपा के खिलाफ कोई कार्रवाई की जा सकती। सरकार उस जमा राशि को स्थाई रूप से फ्रीज भी नहीं कर सकती, क्योंकि मायावती के दावे को गलत साबित करने का कोई तरीका न तो आयकर विभाग के पास होगा और न प्रवर्तन निदेशालय के पास।

हां, यदि सरकार चाहती, तो उस पर भी कोई कानून बनाकर चंदे की राशि का पूरा हिसाब किताब रखने के लिए पार्टियों को बाध्य किया जा सकता था। लेकिन सरकार ने वैसा कानून बनाया ही नहीं है। पिछले दिनो निर्वाचन आयोग ने एक पत्र लिखकर सरकार से मांग की है कि 2 हजार रुपये से अधिक के चंदे का हिसाब रखने के लिए पार्टियों को कहा जाय। यदि आयोग की बात मानकर सरकार ऐसा कानून बना भी देती है, तो वह पिछली तारीखों से लागू नहीं किया जा सकता। इसलिए वह कानून मायावती की बहुजन समाज पार्टी के खाते पर लागू नहीं होता।

यही नहीं दो हजार रुपये की सीमा तय कर देने के बावजूद पार्टियों को यह कहने में परेशानी नहीं होगी कि उसके लाखों समर्थकों ने दो- दो हजार रुपये से कम का चंदा देकर अरबों रुपयों का योगदान कर दिया है। इसलिए कायदे एक चंदे की राशि के एक एक पैसे का हिसाब पार्टियों को रखना चाहिए। अन्यथा इस प्रावधान का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वे इस तरह का कानून बनाने के लिए संसद में चर्चा करवाना चाहते थे, लेकिन संसद को विपक्ष ने चलने ही नहीं दिया। यह अच्छी बहानेबाजी है। प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के लिए तो किसी प्रकार की पूर्व चर्चा नहीं की। कहा तो यहां तक जाता है कि उन्होंने वित्तमंत्री तक को विश्वा समे नहीं लिया, फिर वे राजनैतिक चंदे से संबंधित कानून के लिए चर्चा क्यो करवाना चाहते हैं?

प्रधानमंत्री परेशान हैं कि नोटबंदी को लेकर उनकी जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हुई। उन्हें लगता था कि इसके कारण लोगों के काला धन वाले रुपये रद्दी में तब्दील हो जाएंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि सभी रुपये बैंकों में जमा हो चुके हैं और काला धन पर किया गया यह हमला बेकार साबित हो चुके हैं। उलटे इस घोषणा के बाद नये किस्म का काला धन पैदा हो गया है और इस नये काले धन में ही सरकारी मशीनरियां उलझ कर रह गई हैं। राजनैतिक फंडिंग का मामला काला धन को सफेद करने का एक बड़ा जरिया है। सवाल उठता है कि इस जरिए को समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री ने पहले से कोई प्रावधान क्यों नहीं बनाया? वे कह रहे हैं कि पिछले फरवरी महीने से ही नोटबंदी की तैयारी चल रही थी। तो फिर उन्होंने उसी समय क्यों नहीं यह कानून बना दिया कि 1 अप्रैल 2016 से सभी पार्टियों को अपने चंदे के एक एक रुपये का हिसाब रखना होगा?

उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री जब लोगों को संबोधित करते हुए मायावती की ओर इशारा करते हुए कह रहे थे कि उनके बोरों में भरे नोट रद्दी कागजों में तब्दील हो चुके हैं, तो क्या उस समय उनको यह पता नहीं था कि बोरों में भरे उन नोटों का हिसाब देने की मायावती को कोई जरूरत ही नहीं है, बस इतना कह देना काफी है कि उनके गरीब समर्थको ने 5 हजार, 10 हजार या 15 हजार रुपये के चंदे के रूप में उनही पार्टी को दिया और चंदे के वहीं रुपये उनके बोरे में भरे हैं। अब वे रुपये बैंकों में भी जमा हो चुके हैं और वहां से निकालकर चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया जाएगा।

अब जो हो चुका, उसे पलटना शायद आसान नहीं होगा, लेकिन अब भी समय है कि चर्चा और आम सहमति का रोना छोड़कर सरकार कानून बनाने की पहल करे और राजनैतिक फंडिंग के बारे में साफ सुथरी व्यवस्था बनाई जाय। (संवाद)