नरेन्द्र मोदी का सत्ता में आना यह दर्शा रहा था कि लोग अब एक परिवार की भक्ति से ऊब चुके हैं और वे एक ऐसे संगठन को पसंद करते हैं, जो परिवारवाद से मुक्त हो। लखनऊ में हो रही घटना भी यही बताती है कि अब सामंतवादी लगाव के दिन लद रहे हैं।
अब जोर विकास पर है और जाति, संप्रदाय और परिवार पूजा को लोग त्यागना चाहते हैं। अब मतदाता उन नेताओं को पसंद कर रहे हैं, जो विकास की बात करते हैं। वे ऐसे लोगों को अब पसंद नहीं करते, जो जाति और जाति की सरकार की बात करते हैं।
2014 में सोनिया गांधी का सफाया हुआ और अब मुलायम सिंह यादव भी वैसी ही तस्वीर देख रहे हैं। उन्होंने देख लिया है कि कैसे विधायकों के बहुत बड़े बहुमत ने उन्हें छोड़कर अखिलेश का हाथ थाल लिया है। इसका कारण यह है कि जिस तरह 3 साल पहले नरेन्द्र मोदी को लोग वोट बैंक राजनीति से ऊपर उठा देख रहे थे, उसी तरह आज वे अखिलेश को भी वोट बैक की राजनीति से ऊपर उठता देख रहे हैं।
अब वह समय समाप्त हो गया, जब कांग्रेस समझती थी कि कोई सामंती परिवार सस्ते अनाज का लोभ दिखाकर और गांव मे गड्ढा करवाने और भरवाने के नाम पर रुपया बंटवाकर लोगों का वोट लिया जा सकता है।
उसी तरह मुलायम सिंह यादव की यह समझ भी गलत साबित होती जा रही है कि जाति और परिवार के लगाव व बाहुबलियों के आतंक के द्वारा चुनाव जीता जा सकता है।
जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने सबका साथ सबका विकास का नारा देकर भारतीय जनता पार्टी को हिन्दुत्ववादी राजनीति से अलग रूप देने की कोशिश की, उसी तरह अखिलेश यादव यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे गंुडा तत्वों को राजनीति से दूर रखने की कोशिश कर रहे हैं और अपने पिता मुलायम के अंग्रेजी विरोध और कंप्यूटर विरोध की नीति को भी पीछे छोड़ देना चाहते हैं।
नरेन्द्र मोदी और अखिलेश यादव के संकल्प अन्य पार्टियों से अलग हैं। अन्य अनेक पार्टियां अभी भी यथा स्थितिवाद से अलग नहीं हो पाई है। उदाहरण के लिए कांग्रेस अभी भी इन्दिरा गांधी परिवार से चिपकी हुई है, जबकि उसके कारण उसका तेजी से पतन हो रहा है। अब उस परिवार के पास वह करिश्मा नहीं रहा, जो उसके पहले की पीढ़ी के नेताओं के पास हुआ करता था।
नीतीश कुमार भी प्रगतिशील राजनीति का ही प्रतिनिधित्व कर रहे थे, लेकिन चुनाव जीतने के लिए लालू यादव का साथ लेकर उन्होंने अपनी उस छवि को कमजोर कर दिया। एक बार फिर वे अपनी उस छवि को मजबूत करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने शहाबुद्दीन को जेल भिजवा दिया और शराबबंदी को अपना मुख्य हथियार बना रहे हैं।
पश्चिम बंगाल और ओडिसा के मुख्यमंत्री विकास विरोधी नीतियों को अपनाने मे लगे हुए हैं। लेकिन इसके बावजूद वे चुनाव जीत रहे हैं, तो उसका कारण यह है कि वहां उनके विकल्प पैदा नहीं हो सके हैं। लेकिन लखनऊ से खबर यह आ रही है कि वहां के लोग परंपरागत राजनीतिज्ञों से अब पीछा छुड़ाना चाहते हैं।
महाराष्ट्र में फडनविस की सरकार शिवाजी की मूर्ति बनवा रही है और कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार निजी क्षेत्र की नौकरियों मे कन्नाडिगा लोगों के लिए शतप्रतिशत आरक्षण की बात रही है। ये दोनों मतदाताओं को रिझाने के प्रयास है, लेकिन बदल रही परिस्थितियों में उनके वे प्रयास सफल नहीं होने वाले हैं। (संवाद)
प्रगति और बदलाव का प्रतिनिधित्व करते हैं अखिलेश
अब अपना दम तोड़ रहा है सामंती लगाव
अमूल्य गांगुली - 2017-01-03 12:57
समाजवादी पार्टी में चल रहा पारिवारिक संघर्ष चाहे जिस रूप में समाप्त हो, यह तो अब स्पष्ट हो गया है कि भारतीय राजनीति में सामंती लगाव का युग अब समाप्त होने जा रहा है।