अपनी इस बैठक के जरिए भाजपा ने यह भी जता दिया कि वह अगले महीने होने जा रहे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखेगी। हालांकि उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी विधानसभा के चुनाव होने है जो भाजपा के लिए कम महत्वपूर्ण नही है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और खासकर 2019 के आम चुनाव में दिल्ली की सत्ता बरकरार रखने के लिहाज से उत्तर प्रदेश उसके लिए एक तरह से ’प्रश्न प्रदेश’ बना हुआ है। आम समझ भी यही कहती है कि दिल्ली के सत्ता-सिहासन का रास्ता लखनऊ से ही होकर गुजरता है। और फिर भाजपा के सामने चंद महीनों बाद ही होने वाले राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव भी तो हैं जिनमें उसे अपनी पसंद के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने लायक बहुमत का इंतजाम करना है।

इस दो दिवसीय राजनीतिक अनुष्ठान में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने जो बातें मोटे तौर पर कही, उनसे ऐसा लगता नहीं कि पार्टी के पास देश के इस सबसे बडे और महत्वपूर्ण सूबे के लिए कोई विशेष कार्ययोजना या रणनीति है। प्रधानमंत्री मोदी ने बैठक के समापन करते हुए अपने को ’गरीब नवाज’ की तरह पेश करते हुए सिर्फ और सिर्फ अमूर्त विकास का मंत्रोच्चार किया तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह, वित्त मंत्री अरुण जेटली समेत पूरी पार्टी ने समवेत स्वर में मोदी का जयगान किया। सभी का भाषण मोदी के नेतृत्व तथा नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक की सार्थकता पर केंद्रित रहा। संकेत साफ है कि पार्टी चुनाव मैदान में मोदी सरकार के इन दोनों विवादास्पद कदमों को जायज और कारगर बता कर इसे अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि के तौर पर पेश करेगी। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि वह अपने प्रिय और चिर-परिचित हिंदुत्व के एजेंडे से मुंह मोड लेगी। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक भाजपा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी उसी रणनीति के तहत मैदान में उतरेगी जिसके सहारे उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में विस्मयकारी और ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। उस चुनाव में भी नरेंद्र मोदी हर जगह विकास की बात कर रहे थे तो अमित शाह समेत के पार्टी के दूसरे नेता मुजफ्फर नगर दंगे के बहाने हिंदुत्व के मुद्दे को हवा देकर जोर-शोर से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश में जुटे थे।

दरअसल, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा के समक्ष दूसरी बडी चुनौती है। पहली चुनौती बिहार के चुनाव थे, जिसमें भाजपा और उसके सहयोगी दलांे को करारी शिकस्त खानी पडी थी। उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए ऐसा सूबा है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव को छोड दिया जाए तो पार्टी डेढ दशक से भी अधिक वक्त से तीसरे नंबर पर रहते हुए अपनी खोई हुई ताकत फिर से हासिल करने के लिए छटपटा रही है। हालांकि पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश को बिहार की तुलना मे ज्यादा आसान मैदान मान रही है। इसकी बडी वजह यह है कि यहां बिहार की तरह विपक्ष एकजुट नही हैं और हो भी नहीं सकता। सूबे में सत्तारुढ समाजवादी पार्टी में चल रही भीषण जंग ने भी भाजपा की उम्मीदें हरी कर रखी हैं। पार्टी को शायद यह भी अंदाजा है कि उसका पारंपरिक मतदाता उसका साथ नही छोडेगा और उसे किसी भी हालत में न मिलने वाले मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा। शायद इसी भरोसे की वजह से अभी तक केंद्र सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश के लिए किसी बडी परियोजना का ऐलान नही किया गया है। जाहिर है कि भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन हिदुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोडी सी मेहनत से ही वोटो की फसल लहलहा सकती है, ठीक असम की तरह।

गौरतलब है कि असम विधानसभा के चुनाव मे भाजपा हिदू-बांग्लादेशी टकराव की रणनीति को विकास के साथ जोडकर सर्बानंद सोनोवाल के रूप मे एक नए और साफ-सुथरे चेहरे के साथ मैदान मे उतरी थी। इसके अलावा कांग्रेस से बगावत कर आए हिमांतो बिस्व सरमा जैसे जमीनी नेता का साथ मिलने से उसका काम आसान हो गया था। उत्तर प्रदेश मे भी वह हिंदुत्व की राजनीति के तहत सांप्रदायिक टकराव, समान नागरिक कानून, गो रक्षा, राम मंदिर और गंगा की सफाई जैसे हथकंडो का रसायन तैयार कर और उसे विकास के साथ जोडते हुए असम वाले प्रयोग को दोहराने का इरादा रखती है। यही वजह है कि उसने इलाहाबाद में कैराना का मुद्दा जोरशोर से उठाया। योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, साध्वी प्राची आदि नेताओं के जहरबूझे भाषण उसके इसी इरादे की ओर इशारा करते हैं।

जहां चुनावी मुद्दों को लेकर भाजपा जरा भी दुविधा में नहीं है, वहीं नेतृत्व के सवाल पर पार्टी के सामने गंभीर संकट है। पार्टी दुविधा में है कि मुख्यमंत्री के रूप में वह किस चेहरे को आगे करे। हालांकि उसके पास सूबे में नेताओं की कमी नही है लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। उसके पास ऐसा भी कोई नेता नही है जिसकी कोई खास छवि बनी हो। यानी उसके पास न तो मुलायम सिंह जैसा पिछडों का अनुभवी और मेहनती नेता है और अखिलेश यादव जैसा कोई युवा और बेदाग छवि वाला कोई सर्वमान्य नेता है। मायावती की तरह कोई दलित ऑइकन और सख्त प्रशासक की छवि वाला नेता का भी उसके पास अभाव है। मुलायम और मायावती जमीन से जुडे राजनीतिक लडाके हैं तो युवा वर्ग में अखिलेश के प्रति आकर्षण। भाजपा की समस्या यह है कि उसने प्रदेश मे ऐसा कोई नेता विकसित ही नही किया। अलबत्ता उसके पास हिंदुत्व के नाम पर वाचाल और ऊलजुलूल बयानबाजी करने वाले नेताओ की भरमार है। ऐसे नेता और कुछ भी कर सकने में सक्षम हो सकते है लेकिन पार्टी का चेहरा बनकर प्रशासक के तौर पर प्रदेश को नेतृत्व कतई नही दे सकते। ऐसे मे भाजपा के सामने यही रास्ता बचता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान मे वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधे पर सवार होकर ही उतरे और उनके प्रतीक का ही इस्तेमाल करे। हालांकि इस रणनीति की भी सीमाएं है, जो बिहार के विधानसभा चुनाव मे उजागर हो चुकी है। (संवाद)