बाद में 1978 में कांग्रेस में एक और विभाजन हो गया। गाय और बछड़ा सिंबल फ्रीज हो गया और इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को हाथ का पंजा चुनाव चिन्ह मिला। उसी चिन्ह से कांग्रेस चुनाव लड़ी और 1979-80 में हुए चुनावों में जीत भी हासिल कर ली। बाद में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को ही निर्वाचन आयोग ने असली कांग्रेस माना और गाय-बछड़ा चुनाव चिन्ह का उसे हकदार माना, लेकिन कांग्रेस ने अपने नये चुनाव चिन्ह हाथ के पंजे को ही रखा।

अनेक पार्टियों में अबतक विभाजन हुए हैं। निर्वाचन आयोग ने सारे मामले गए, पर हमेशा आयोग ने अंतरिम व्यवस्था के तहत उनके सिंबल को फी्रज किया और नया सिंबल उन्हे अलाॅट कर दिया। यही कारण है कि इस बार भी उम्मीद की जा रही थी कि वही इतिहास दुहराया जाएगा और साइकिल सिंबल फ्रीज कर लिया जाएगा व समाजवादी पार्टी के एक गुट को समाजवादी पार्टी (मुलायम) और दूसरे गुट को समाजवादी पार्टी (अखिलेश) का नाम देर आयोग उन्हें नये सिंबल अलाॅट कर देगा।

पर इस बार इतिहास नहीं दुहराया गया, बल्कि आयोग ने अखिलेश के दावे को स्वीकार कर लिया। और यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि जब सारी बातें स्पष्ट हों, तो फिर मामले को लटकाना अनुचित ही होता। अखिलेश यादव के दावे के अनुसार समाजवादी पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधित्वों में से 85 फीसदी से भी ज्यादा उनके समर्थन में थे। कार्यकारिणी का आधा से ज्यादा करीब 60 फीसदी अखिलेश के समर्थन में थे। राष्ट्रीय परिषद का भारी बहुमत अखिलेश के साथ ही था। गौरतलब हो कि राष्ट्रीय परिषद ही अध्यक्ष का चुनाव करता है।

दूसरी तरफ मुलायम सिंह ने अपने समर्थकों के संख्याबल का कोई आंकड़ा आयोग के सामने पेश नहीं किया था। जिन लोगों ने अखिलेश के समर्थन में हलफनामे दाखिल नहीं किए थे, यदि उन्हें मुलायम के समर्थक मान लिए जाएं, तो उनकी संख्या भी काफी कम थी। और सबसे बड़ी बात यह है कि मुलायम ने खुद माना था कि उनकी पार्टी में विभाजन नहीं हुआ है। यानी वे अपने को किसी विभाजित समाजवादी पार्टी या समाजवादी पार्टी के किसी एक गुट के नेता के रूप में आयोग के सामने पेश कर ही नहीं रहे थे, बल्कि उनका दावा था कि वे अविभाजित समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष हैं और अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के लोग जो सिंबल की मांग कर रहे हैं, वे गलत हैं, क्योंकि अखिलेश का अध्यक्ष बनना ही असंवैधानिक है।

मुलायम ने अखिलेश के अध्यक्ष के रूप में चुनाव को असंवैधानिक और अवैध तो करार दिया, लेकिन वे उसे साबित नहीं कर पाए। उनका कहना था कि नियमों के अनुसार वह अधिवेशन नहीं बुलाया गया था, जिसमें अखिलेश को अध्यक्ष चुना गया। अधिवेशन बुलाने वाले राम गोपाल यादव को उन्होंने निष्कासित नेता बताया, जो अधिवेशन बुला ही नहीं सकता था, लेकिन राम गोपाल यादव यह साबित करने में सफल हुए कि उनका निष्कासन ही असंवैधानिक और अवैध था, क्योंकि पार्टी से निकालने की जो प्रक्रिया है, उसका पालन करते हुए उन्हें निकाला ही नहीं गया था। उन्हें कोई नोटिस नहीं दिया गया था और न ही उन्हें एक तीन सदस्यीय समिति के सामने सफाई पेश करने का मौका दिया गया था, जो समाजवादी पार्टी से उनके निष्कासन के पहले अपनाई जाने वाली आवश्यक प्रक्रिया थी।

जाहिर है, निर्वाचन आयोग को यह फैसला करना था कि समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष मुलायम हैं या अखिलेश। उसे विभाजन पर फैसला करना ही नहीं था, क्योंकि विभाजन की बात न तो अखिलेश उठा रहे थे और न ही मुलायम। मुलायम तो साफ साफ कह रहे थे कि पार्टी का विभाजन ही नहीं हुआ है और पार्टी में कोई कलह भी नहीं है। उनका दावा यह था कि वे अभी भी पार्टी के अध्यक्ष हैं, जबकि दूसरी तरफ अखिलेश भी विभाजन की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि कह रहे थे कि पार्टी के अध्यक्ष वे खुद हैं और मुलायम सिंह को भी अपनी पार्टी से वे बाहर नहीं मानते थे। गौरतलब है कि जिस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया था, उसी में मुलायम को पार्टी के सर्वोच्च नेता और मार्गदर्शक बनाने का प्रस्ताव भी पास किया गया।

यही कारण है कि निर्वाचन आयोग को अखिलेश को अध्यक्ष मानने में ज्यादा देर नहीं लगाना पड़ा। और चूंकि मुलायम किसी विभाजन की बात नहीं कर रहे थे और किसी गुट के अध्यक्ष होने की बात भी नहीं कर रहे थे, इसलिए उनसे पार्टी के लिए कोई नया नाम और नया सिंबल चुनने के लिए भी नहीं कहा गया, क्योकि इस तरह का मसला निर्वाचन आयोग के समाने था ही नहीं।

अखिलेश यादव को साइकिल मिल गई है। सवाल यह है कि अब मुलायम क्या करेंगे? सच कहा जाय, तो उनके पास करने के लिए अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है। वे पार्टी के अंदर अपने बेटे से पराजित हो चुके हैं। निर्वाचन आयोग में भी हार चुके हैं। इन हारों के बावजूद यदि वे चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो उनके बारे में सिर्फ एक ही संदेश जाएगा कि उनका मिशन अब अपने बेटे को विधानसभा चुनाव में अपने विरोधियों के हाथों हरवाना है। इस तरह का संदेश जाने से उनकी प्रतिष्ठा ही गिरेगी और उनके चुनाव लड़ने के कारण अखिलेश हार ही जायं, यह कोई निश्चित नहीं। (संवाद)