इस बजट से अनेक तबकों के लोगों की अनेक अपेक्षाएं है, लेकिन पूरे देश के लिहाज से सबसे बड़ी अपेक्षा रोजगार के अवसर पैदा करने को लेकर है। लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में 5 साल में 5 करोड़ रोजगार अवसर पैदा करने का वायदा किया था, लेकिन सरकार के आधे कार्यकाल के बीत जाने के बाद भी इस मोर्चे पर स्थिति बहुत ही भयावह है। सच कहा जाय तो 2009 के बाद सबसे कम रोजगार सृजन 2015 में हुआ है। जाहिर है कि रोजगार सृजन की पुरानी असंतोषजनक दर को बरकरार रखने में भी केन्द्र सरकार सफल नहीं हुई है।

सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने रोजगार अवसर को बढ़ाने के लिए दो मोर्चो को मजबूत करने की कोशिश की। एक मोर्चा तो रोजगार पाने वाले लोगों के लिए था। इसके तहत कौशल विकास के अभियान चलाए गए। दूसरा मोर्चा उद्यमशीलता को वित्तपोषित करने का था, जिसके तहत अनेक ऐसी योजनाएं चलाई गईं, जिनका लाभ उठाकर उद्यमी बैकों से आसान शर्ताें पर आसानी से कर्ज ले सकते हैं। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना इसकी झंडाबरदार योजना है।

कायदे से अबतक तो इन योजनाओं का नतीजा सामने आ जाना चाहिए था। शायद कुछ नतीजे सामने भी आ रहे थे, लेकिन नोटबंदी ने एकाएक कैश की भारी किल्लत पैदा कर दी, जिसके कारण असंगठित क्षेत्र में करोड़ों की संख्या में रोजगार अवसर समाप्त हो गए। उम्मीद की जा रही थी कि इसका असर तात्कालिक होगा, लेकिन सच्चाई यही है कि इसके कारण भारी नुकसान हो चुका है। एसाचैम के अनुसार 40 लाख लोग इसके कारण बेरोजगार हो चुके हैं। अन्य आंकड़े करोड़ो के बेरोजगार होने की कहानी कहते हैं।

भारत एक श्रमबहुल देश है और इसमे पूंजीबहुल तकनीकी के इस्तेमाल से बेरोजगारी की समस्या का हल नहीं निकल सकता। जाहिर है कि छोटे और मध्यम घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देकर ही ज्यादा से ज्यादा रोजगार पैदा किया जा सकता है। लेकिन नई आर्थिक नीतियों के दौर में छोटे और मध्यम उद्योगों को दिए जाने वाले संरक्षण हटाए जाने लगे। उसके कारण रोजगार सृजन पर असर पड़ा। आज जरूरत है कि खेती पर से श्रम का बोझ हटाया जाय, और गैर खेतिहर क्षेत्र में मजदूरों को खपाया जाय। पर नई आर्थिक नीतियों मे लघु और मध्यम उद्योगों को दिया जा रहा संरक्षण हटाया गया और उसकी रोजगार सृजन क्षमता कम कर दी गई। इसका एक नतीजा किसानों की आत्महत्याओं के रूप में हम देख रहे हैं, क्योंकि खेती उनके लिए फायदे का धंधा नहीं रही और उसके बाहर उनको काम नहीं मिल पा रहा है। जिसके कारण वे आत्महत्या के लिए बाध्य हो रहे हैं। गांवों मे बढ़ती बेरोजगारी के कारण खेतिहर जातियां आरक्षण का आंदोलन चलाने के लिए बाध्य हो रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आरक्षण से उनकी बेराजगारी की समस्या का निदान हो सकता है। जाट, मराठा, पाटीदार और कापू जैसी खेतिहर जातियांें का ओबीसी आरक्षण के दायरे में लाने की मांग भी नई आर्थिक नीति जनित दुष्परिणामों का नतीजा है, क्योंकि छोटे और मध्यम उद्योगों की रोजगार उत्पादक क्षमता को कुुंठित कर उन्हें उस कृषि पर आश्रित रहने के लिए बाध्य कर दिया गया है, जहां काम तो हो सकता है पर कमाई नहीं हो सकती।

सवाल उठता है कि क्या जेटली बेरोजगारी की इस समस्या से निबटने के लिए कोई नीतिगत बदलाव करेंगे? नोटबंदी ने मोदी सरकार के दो ढाई साल के परिश्रम पर पानी फेर दिया है और दुनिया मे सबसे ज्यादा गति से विकास कर रही भारत की अर्थव्यवस्था अब ठिठक गई है और बेरोजगारी की गंभीर समस्या और भी गंभीरतर हो गई है। सरकार को इसके कारण जरूर चिंतित होना चाहिए और उसे उद्यमशीलता को बढ़ावा देकर और उद्यमियों को कर्ज उपलब्ध कराकर ही चुप नहीं बैठ जाना चाहिए। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हाल ही मंे कहा है कि उद्यमशीलता आधारित रोजगार सृजन अच्छी बात है, लेकिन इसमें जितना समय लगेगा, उतना समय लोगों के पास है ही नही। लोग उतने दिनों तक इंतजार नहीं कर सकते।

राष्ट्रपति भारत के वित्तमंत्री भी रह चुके हैं। वर्तमान वित्तमंत्री जेटली को उनका इशारा समझना चाहिए और रोजगार सृजन के लिए सीधा और कम समय लेने वाले तरीकांे की घोषणा अब अपने बजट में करना चाहिए। वे इस बजट को और भी ऐतिहासिक बना सकते हैं, क्योंकि वह नोटबंदी के ऐतिहासिक घटना के बाद पहलेी बार बजट पेश करने जा रहे हैं। वह इतिहास हो सकता है एक ऐसे बजट लाने का जिसमें रोजगार सृजन की वैसी क्षमता हो, जैसी क्षमता पहले किसी भी बजट में नहीं रही हो।

जब 2019 में सत्तारूढ़ पार्टी फिर से लोगों का वोट मांगेगी, तो उसे जवाब देना होगा कि पांच साल में 5 करोड़ रोजगार अवसर पैदा करने का वादा उसने पूरा किया या नहीं। उम्मीद है कि अरुण जेटली उस स्थिति को ध्यान में रखते हुए बजट तैयार कर रहे होंगे। और वह लक्ष्य हासिल करने के लिए लधु और मध्यम श्रेणी के उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा, क्योंकि मेक इन इंडिया पूंजी बहुल होने के कारण रोजगार अवसर पैदा करने की चुनौतियों पर खरा नहीं उतर सकता। यह तो स्थानीय संसाधनों और तकनीकी का इस्तेमाल कर स्थानीय उद्यमियों के बूते ही हो सकता है, क्योंकि स्थानीय श्रम को इनके द्वारा ही काम दिया जा सकता है। (संवाद)