एकाएक मोहन भागवत का बयान आ गया कि आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए। उसे लालू यादव ने लपक लिया और ’आरक्षण खतरे में है’ का संदेश लेकर मतदाताओं के बीच पहुंच गए। फिर क्या था, नीतीश कुमार की स्वीकार्यता लालू के समर्थकों के बीच हो गई। उधर दलितों में भी भ्रम पैदा हो गया कि वे आरक्षण विरोधी संघ की पार्टी भाजपा का समर्थन करें या न करें। बिहार की एक बड़ी संख्या वाली जाति कुशहवाहा लालू और नीतीश दोनों से नाराज थी और उसके अधिकतर मतदाता उन्हें हराने के लिए भाजपा के पक्ष में थे, लेकिन ’आरक्षण खतरे में’ का संदेश वहां तक पहुंचा, तो वे भी भाजपा विरोधी हो गए। फिर क्या था 180 सीटों की जीत का दावा करने वाली भाजपा महज 53 सीटों पर ही सिमट गई। यह सब मोहन भागवत के कारण ही हुआ।

लेकिन बिहार के चुनाव से संघ ने सीख नहीं ली है। उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले उसने एक बार फिर वही गलती कर दी, जो उसने बिहार में की थी। इस बार बयान मोहन भागवत ने नहीं दिया है, बल्कि संघ के प्रचार प्रमुख ने दिया है, लेकिन प्रचार प्रमुख का पद भी संघ में बहुत ऊंचा होता है और वह एक तरह से संघ के दर्शन का प्रवक्ता भी होता है। संघ आरक्षण विरोधी है, इसमें तो शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन सत्ता में आकर संघ इसे समाप्त भी कर देगा, ऐसा कम लोग ही सोचते हैं। पर जब चुनाव के पहले इस तरह की बात की जा रही हो, तो उन समुदायों में डर तो फैलेगा ही, जो आरक्षण के पक्षधर हैं।

आरक्षण एक ऐसा विषय है, जिस पर देश में कभी एक राय नहीं बन सकती। जो इसके पक्षधर हैं, वे इसके विरोधियों की बात तक सुनने को तैयार नहीं हैं और जो इसके विरोधी हैं, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि समर्थक इसके समर्थन में क्या कह रहे हैं। यानी इस पर दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह के संवाद की संभावना भी नहीं रह गई। लेकिन इसका असर चुनावो में मतदान के समय पड़ता है। और यह असर भारतीय जनता पार्टी के लिए हमेशा खराब रहता है। उसके हित में यही है कि चुनाव के समय यह मुद्दा उठे ही नहीं, क्योंकि उसके कोेर समर्थक आरक्षण विरोधी है, जबकि उसे जिताऊ मत आरक्षण विरोधियों से प्राप्त होते हैं। यदि यह मसला उठाकर भाजपा अपने कोर समर्थकों को खुश रखती है, तो जीत दिलाने वाले मतदाता उससे दूर भाग जाएंगे और वह चुनाव हार जाएगी। पर उसी समय उसने यदि आरक्षण के पक्ष में आरक्षण समर्थकों का मत पाने के लिए आवाज उठानी शुरू की, तो उसके कोर समर्थक हतोत्साह होकर अपने घर बैठ सकते हैं।

बिहार में यह हो चुका है। भाजपा के समर्थक आरक्षण विरोधी मतदाता नरेन्द्र मोदी के मुंह से आरक्षण समाप्त करने की स्थिति में जान की बाजी लगाने वाला बयान सुनकर काफी संख्या में अपने घरों में बैठ गए थे और करीब 8 लाख भाजपा समर्थकों ने तो नोटा में वोट डालकर वोट बरबाद ही कर दिया। इस तरह भाजपा के मतों का दुतरफा ह्रास हुआ और उसे भारी हार का सामना करना पड़ा। मांझी-पासवान-कुशवाहा की तिकड़ी भी उसे भारी पराजय से बचा नहीं सकी और उसे तिकड़ी को भी मात्र 5 सीटें ही मिली थीं।

उत्तर प्रदेश के लोगों का मिजाज भी बिहार के लोगों जैसा ही है। यहां तो बिहार की तरह भाजपा सबसे आगे भी नहीं चल पा रही है। उसका संगठन सपा और बसपा के संगठन से कमजोर है। वह समाजवादी पार्टी के फूट के भरोसे थी, लेकिन अब सपा पूरी तरह एक है और स्वच्छ छवि के अखिलेश के नेतृत्व में उसकी स्थिति बहुत अच्छी है। दलितों का वोट पाने के लिए भाजपा ने अंबेडकर की जमकर पूजा अर्चना की है, लेकिन वेमुला प्रभाव के कारण वह उनके बीच पहुंच नहीं बना सकी है। ओबीसी का मत पाने के लिए उसने एक कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया और उमा भारती के पोस्टरों पर निर्भर कर रही है। नरेन्द्र मोदी को भी ओबीसी के रूप में प्रोजेक्ट कर यादव विरोधी मानसिकता वाले ओबीसी मतों को अपनी ओर खींचने मे वह लगी हुई है, लेकिन जब आरक्षण का मामला आता है, तो गैर यादव ओबीसी यादव विरोध भी भूल जाते हैं, यह बात शायद संघ के नेताओं को नहीं पता है।

बहरहाल, संघ के नेता अब आरक्षण पर दिए गए बयान पर सफाई पेश कर रहे हैं, लेकिन उसे जो नुकसान होना था, वह पहले ही हो गया है। उसे लेकर आरक्षण पाने वाले समुदायांे में पहले से ही संशय है और उसके कारण उनकी सफाई को लोग शायद ही स्वीकार करें। हां, यदि उसके नेताओं ने यदि आरक्षण के पक्ष में ज्यादा बोला, तो आरक्षण विरोधी भी उससे नाराज होने लगेंगे। और इस तरह से भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में बिहार दुहराने का रास्ता साफ हो जाएगा। अब भाजपा को उत्तर प्रदेश में अखिलेश या मायावती से नहीं, बल्कि लालू यादव से खतरा है, जो संघ के प्रचार प्रमुख के बयान को भाजपा के खिलाफ खड़ी कर देने की क्षमता रखते हैं। (संवाद)