इस बार भी कायदे से संघर्ष इन्हीं दोनो के बीच में होना था, क्योकि भारतीय जनता पार्टी लगातार पतन के गर्त मे जा रही थी और कांग्रेस का तो पहले ही पतन हो गया था। लेकिन नरेन्द्र मोदी के उभार ने भाजपा को उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के चुनाव में भारी जीत दिला दी। उसमे अन्य सभी पार्टियो की भारी पराजय हुई। बहुजन समाज पार्टी को तो एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई।

पिछले 25 साल में यह पहली बार हुआ कि लोकसभा में बसपा का कोई सदस्य नहीं है। 1989 के लोकसभा चुनाव मे खुद मायावती पहली बार चुनाव जीतकर लोकसभा की सदस्य बनी थी। 1991 के चुनाव में तो बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं जीता था और मायावती खुद भी अपना चुनाव हार गई थीं, लेकिन एक उपचुनाव मे मुलायम सिंह के समर्थन से कांशीराम इटावा लोकसभा क्षेत्र से जीत हासिल कर सांसद बन गए थे। उसके बाद के हुए चुनावों में भी कोई न कोई बसपा का सदस्य लोकसभा में हुआ ही करता था।

लेकिन 25 साल के बाद 2014 में पहली बार बसपा का लोकसभा मे कोई सदस्य नहीं है। उसे करीब 20 फीसदी वोट मिले थे। उससे बहुत कम वोट उत्तर प्रदेश में पाने वाली कांग्रेस के दो सदस्य लोकसभा में है, लेकिन 20 फीसदी मत के बावजूद बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई।

लोकसभा में अभूतपूर्व जीत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी वहां एक बड़ी ताकत बन चुकी है और सपा व बसपा के अलावा वह एक तीसरी ताकत बन चुकी है। इस बार चुनाव मंे तीनों के बीच मुकाबला है और कुछ समय पहले तक यह पता नहीं चल पा रहा था कि मुख्य मुकाबले मे ंइन तीनों पार्टियों में कौन शामिल नहीं है। अनुमान के आधार पर निष्कर्ष निकालकर उस सर्वे का रूप देने वाले चुनावी पूर्व सर्वेक्षण भी कभी मुख्य लड़ाई से सपा को बाहर कर रहे थे तो कभी बसपा को। वे चुनाव पूर्व सर्वे आमतौर पर प्रायोजित होते हैं और प्रायोजकों की राजनीति के हिसाब से अपने निष्कर्ष निकालते हैं, लेकिन इतना तो कोई कह सकता था कि तीनों पार्टियों में गंभीर संघर्ष है और किसी को हल्के में नहीं लिया जा सकता।

पर कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने अब चुनावी समीकरण को बदल डाला है और इसका सीधा प्रभाव मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी पर पड़ रहा है। बहुजन समाज पार्टी की राजनीति शुरुआत में दलित, ओबीसी और मुस्लिम को एक मंच पर लाकर चुनाव जीतने की थी। इन तीनों के लिए सम्मिलित नाम बहुजन रखा गया था। मुस्लिम तो ज्यादा बसपा के साथ नहीं जुड़ते थे, क्योंकि उनकी पसंद मुलायम सिंह यादव ही थे, पर दलितों के साथ ओबीसी का एक हिस्सा मिलकर बसपा को ताकत प्रदान करता रहता था।

इसी की ताकत से 2007 में बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था, लेकिन उस जीत के बाद मायावती का रवैया ओबीसी के प्रति उदासीन हो गया। वे ओबीसी को सत्ता में भागीदारी नहीं देना चाहती थीं और उन्हें वे अपनी दलित राजनीति के लिए अपना प्रतिस्पर्धी तक मानती थीं, इसलिए उन्होंने ओबीसी की जगह सवर्ण को अपनी राजनीति का आधार बनाना शुरू कर दिया। उन्हें लगा कि मुलायम को सत्ता से बाहर रखने के लिए सवर्ण उनका समर्थन करते रहेंगे।

मुस्लिमों को समर्थन हमेशा मुलायम के प्रति ज्यादा रहा है, लेकिन मायावती ने उस समुदाय को भी ओबीसी से ज्यादा तवज्जो दी। इसके कारण ओबीसी उनसे अलग होने लगे। 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने ओबीसी को टिकट बहुत कम दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी पार्टी बुरी तरह हारकर सत्ता से बाहर हो गई। मुस्लिम और सवर्ण समर्थन उनके काम नहीं आया। 2014 के चुनाव में तो मायावती ने हद कर दी। 80 सीटों में से मात्र 15 सीटें ओबीसी उम्मीदवारों को दी। इसके कारण कारण ओबीसी को मोह उनसे पूरी तरह हो गया और उनसे छिटककर वे भाजपा के पास चले गए, जिसने एक ओबीसी नरेन्द्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया था।

मायावती ने 2012 और 2014 की हार से कोई सबक इस बार भी नहीं लिया। वे दलित, सवर्ण और मुस्लिम समीकरण बनाकर चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन कांग्रेस-सपा गठबंधन के कारण अब मुस्लिम ज्यादातर उस गठबंधन की ओर चले गए हैं। मायावती ने करीब 100 मुसलमानों को टिकट दिया है। उनमें से अधिकांश की जमानत जब्त हो सकती है, क्योंकि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए वे सपा और कंाग्रेस के उम्मीदवारों की ओर ही रुख करेंगे।

दूसरी तरफ सवर्ण मत एक बार फिर भाजपा की ओर तेजी से लोट रहे हैं। वैसे ज्यादातर सवर्ण हमेशा भाजपा के साथ ही वहां रहे हैं, लेकिन बार बार उसके हारने के कारण थोड़े बहुत मायावती और मुलायम की ओर भी चले जाते थे। पर इस बार भाजपा एक बड़ी ताकत है, इसलिए सवर्ण मतदाताओं का बहुत बड़ा हिस्सा उनकी तरफ ही जाएगा। इधर मायावती ने सबसे ज्यादा टिकट सवर्णो को ही दे रखे हैं। जाहिर है, उनमें से ज्यादातर की जमानत जब्त होगी और जीतने वाले उम्मीदवारों की संख्या कम होगी।

दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर हारजीत गैरदलित मतदाताओं पर निर्भर करता है। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में दलितों के अलावा मायावती के पास कोई अन्य आधार है ही नहीं। जाहिर है, उनके दलित उम्मीदवारों को भी जीत हासिल करने में बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। इस तरह अपने बहुजन दर्शन से भटकने का खामियाजा मायावती को चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। बहुत संभावना है कि उत्तर प्रदेश में उनकी वही स्थिति हो जाएगी, जो स्थिति बिहार में रामविलास पासवान की है। (संवाद)