कांग्रेस समाजवादी पार्टी के गठबंधन के साथ अब यहां मुकाबला तिकोना हो गया है। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों पार्टियों ने मजबूरी में ही यह गठबंधन किया है। सवाल उठता है कि क्या दोनों पार्टियों को गठबंधन के अंदर एक दूसरे का लाभ मिल पाएगा? अब तक तो दोनों पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ आग उगल रही थीं।
इसमे कोई शक नहीं कि यदि दोनों पार्टियों ने आपस मे बेहतर तालमेल के साथ काम किया, तो दोनों को लाभ होगा। अपनी खराब स्थिति के बावजूद कांग्रेस के पास 7 या 8 फीसदी मत हैं। ब्राह्मणों और दलितों का उसके प्रति अब भी कुछ झुकाव है। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के पास मुस्लिम-यादव गठजोड़ का ठोस समर्थन बरकरार है। इस गठबंधन के कारण भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
समाजवादी पार्टी पारिवारिक कलह से जूझ रही थी। मुलायम और अखिलेश एक दूसरे से भिड़े हुए थे और अंत में निर्वाचन आयोग के फैसले के बाद ही झगड़ा थमा। अखिलेश इस कलह मे विजयी रहे और पराजित पक्ष ने उन्हें विजयी स्वीकार कर लिया। अब मुलायम सिंह पृष्ठभूमि मे चले गए हैं और पहली बार अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी लड़ रही है। यह उनकी जीत हुई, तो निश्चय ही उनकी नजर राष्ट्रीय राजनीति पर होगी।
अपने यादव और मुस्लिम जनाधार को अपने साथ रख पाना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती होगी। इस चुनाव का नतीजा इस पर निर्भर करेगा कि मुस्लिम मतों का विभाजित होता है या नहीं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ ही इसीलिए है, ताकि मुस्लिम मतों के विभाजन को रोका जा सके। मुस्लिम मत कुल आबादी में 19 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं और उनके समर्थन के दावेदारों मे बहुजन समाज पार्टी और कुछ अन्य स्थानीय दल भी हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तो उन्हें अपना जनाधार समझती ही हैं।
लेकिन खतरा यह है कि मुस्लिम मतों के धु्रवीकरण के चक्कर मे हिन्दू मतों का धु्रवीकरण भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में होने न लगे। पिछले लोकसभा चुनाव में यही हुआ था। उसके कारण भारतीय जनता पार्टी को 80 में से 71 सीटें हासिल हो गई थीं और उसके सहयोगी अपना दल को भी दो सीटें मिल गई थीं।
राहुल गांधी के लिए तो यह अपने पुराने रास्ते से पूरी तरह पलटी मार लेना जैसा है। उनका नारा था अकेला चलने का। इसके कारण वे कांग्रेस का किसी अन्य पार्टियों से तालमेल का विरोध किया करते थे। वे उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त अभियान चला रहे थे और अकेले चलने की बात भी कर रहे थे। शुरू शुरू मे उनका अभियान अच्छा चल रहा था, लेकिन बाद मे वह कमजोर पड़ने लगे। उनके कार्यक्रमों में आने वाले लोगों की संख्या कम होने लगी थी।
पार्टी ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी घोषित कर दिया था। श्रीमती दीक्षित को इस गठबंधन का आभास हो गया था और वे लगातार अपने आपको मुख्यमंत्री पद के रेस से बाहर करने की घोषणा कर रही थीं। अब उन्होंने अपने आपको पूरी तरह पीछे कर लिया है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक बार पहले भी जूनियर पार्टनर बनकर चुनाव लड़ चुकी हैं। 1996 में उसे बहुजन समाज पार्टी का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार किया था। लेकिन उसके बाद बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से मना कर दिया।
देखना दिलचस्प होगा कि राहुल और अखिलेश की यह चुनावी दोस्ती कौन सा रंग दिखाती है। (संवाद)
कांग्रेस और सपा एक साथ
क्या राहुल-अखिलेश की दोस्ती रंग लाएगी?
कल्याणी शंकर - 2017-01-27 11:03
अनेक महीनों तक उहापोह की स्थिति से गुजरने के बाद 131 साल पुरानी कांग्रेस और 25 साल पुरानी समाजवादी पार्टी ने आखिरकार उत्तर प्रदेश चुनाव में एक दूसरे के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। यह पहला मौका है, जब दोनों एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। कांग्रेस गठबंधन की जूनियर पार्टनर है। कांग्रेस की अपनी सरकार पिछली बार 1989 में थी। उसके बाद उत्तर प्रदेश में उसकी कभी कोई सरकार नहीं बनी। किसी गठबंधन की सरकार में उसने कभी यहां हिस्सेदारी भी नहीं की।