दरअसल, इस समुद्र तटीय सूबे की तासीर ही कुछ ऐसी है कि यह शुरू से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार होता रहा है। 1987 में पूर्ण राज्य की हैसियत मिलने के बाद और उससे पहले भी इस प्रदेश को अस्पष्ट जनादेश और राजनीतिक उठापटक के चलते अक्सर अल्पजीवी सरकारें और राष्ट्रपति शासन झेलना पडा है। देश के इस सबसे छोटे सूबे में आमतौर पर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही चुनावी मुकाबला होता रहा है और छोटे-छोटे दो-तीन क्षेत्रीय दल कभी इस तो कभी उस पाले रहते आए हैं। देश और प्रदेश की राजनीति में भाजपा के उदय से पहले यहां महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी एमजीपी ही कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी हुआ करती थी।

पांच साल पहले 2012 में भाजपा नीत गठबंधन ने यहां कांग्रेस को करारी शिकस्त देते हुए उसे सत्ता से बेदखल किया था लेकिन पांच साल पूरे होते-होते भाजपा न तो अपने गठबंधन को और न ही खुद को टूटने से बचा पाई। लिहाजा इस बार वह अकेले चुनाव मैदान में थी और कांग्रेस के अलावा उसके सहयोगी रहे दल ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई चुनौती भी उसके सामने थी।

भाजपा को मिल रही चुनौती की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी तक को चुनाव प्रचार के दौरान घूमा-फिराकर बार-बार यह जताना पडा कि गोवा में उनकी पार्टी का चेहरा मनोहर पर्रीकर ही है और यहां बनने वाली भाजपा सरकार उनके ही नेतृत्व में काम करेगी। हालांकि पर्रीकर को पार्टी ने औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था लेकिन फिर वे चुनाव के दो महीने पहले से ही गोवा में सक्रिय थे और वहीं से रक्षा मंत्रालय कामकाज चला रहे थे। गोवा में मुख्यमंत्री के रूप में पर्रीकर का रिकार्ड अपेक्षाकृत साफ-सुथरा और नतीजे देने वाला माना जाता रहा है। इसी रिकार्ड के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें दिल्ली बुलाकर रक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा था। लेकिन पर्रीकर के दिल्ली जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी बने लक्ष्मीकांत पारसेकर न सिर्फ नाकारा साबित हुए बल्कि भ्रष्टाचार के आरोपों से भी अपने को नहीं बचा सके। उनके प्रति न सिर्फ पार्टी में अंसतोष पनपा बल्कि सूबे की जनता में भी उनके और उनकी पार्टी के प्रति नाराजगी थी।

सामाजिक तौर पर गोवा एक ईसाई बहुल सूबा है। गोवा की कुल आबादी मे 27 फीसदी कैथोलिक ईसाई हैं जो कि राज्य के मूल निवासी हैं। उनका अपनी स्थानीय संस्कृति और पंपराओं से गहरा लगाव है जिसकी वजह से वे हमेशा संघ के निशाने पर रहते हैं। हालांकि पर्रीकर ने मुख्यमंत्री रहते अपनी सूझबूझ से इस तनाव को काफी हद तक कम कर दिया था और इस समुदाय में अपनी अच्छी पैठ भी बना ली थी लेकिन उनके दिल्ली जाने के बाद स्थिति बदल गई। चर्च और भाजपा के रिश्तों ने फिर से पुरानी तनावभरी शक्ल अख्तियार कर ली। कुल मिलाकर भाजपा के खिलाफ जबर्दस्त सत्ता विरोधी रुझान था जिसकी पुष्टि चुनाव नतीजों से भी हुई।

गोवा के चुनाव नतीजों से न सिर्फ भाजपा को सत्ता से बेदखल होने का जनादेश मिला बल्कि उसका विकल्प बनने की हसरत लिए चुनाव मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी को भी शर्मनाक पराजय के साथ बुरी तरह निराश होना पडा। पार्टी ने यहां 40 में से 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किए थे। पूर्व नौकरशाह एल्विस गोम्स को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था और कई लोक-लुभावन वायदे किए थे। लेकिन इन सारी कवायदों का नतीजा पार्टी के लिए दिल तोडने वाला रहा। एक को छोड उसके बाकी सभी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।

भाजपा के गठबंधन से अलग होकर चुनाव मैदान उतरी एमजीपी, गोवा फार्वर्ड पार्टी और शिवसेना को क्रमशरू तीन, तीन और एक सीट तथा एक-एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और निर्दलीय को हासिल हुई। चूंकि कांग्रेस के अलावा ये सारी छोटी पार्टियां भी भाजपा के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरी थी, लिहाजा जो नतीजे आए हैं वे स्पष्ट तौर पर न सिर्फ भाजपा को बल्कि मनोहर पर्रीकर को भी नकारने वाले हैं, क्योंकि भाजपा ने अनौपचारिक तौर पर पर्रीकर के चेहरे को आगे करके ही चुनाव लडा था। इसके बावजूद भाजपा ने इन्हीं छोटी-छोटी पार्टियों के समर्थन से मनोहर पर्रीकर की अगुवाई में सरकार बना ली है। इसीलिए सरकार बनाने से वंचित रही कांग्रेस ही नहीं बल्कि राजनीतिक समीक्षक इसे चुराया अथवा खरीदा हुआ जनादेश कह रहे हैं। इस सरकार के गठन को भले ही संवैधानिक प्रावधानों की रोशनी में चुनौती न दी जा सकती हो पर इसकी नैतिकता पर तो सवाल उठेंगे ही। (संवाद)