पता नहीं, इस प्रकार के आकलन में सच्चाई है भी या नहीं, लेकिन इस प्रकार की राय रखने वाले कहते हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो, सीबीआई उसी की नियंत्रण में होती है, जिसकी सरकार होती है। और सीबीआई अपने राजनैतिक बाॅस की इच्छा के बिना किसी भी संवेदनशील राजनैतिक मामले पर पहल नहीं करती। यहां सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की याचिका पर ही उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए मुकदमे का आदेश दिया है। जब यह मामला सुनवाई के दौर में था, तो सीबीआई के वकील ने जोर देकर उन नेताओं पर मुकदमा चलाने की आदेश देने की सिफारिश की थी और सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की याचिका को स्वीकार करते हुए उसके पक्ष में ही निर्णय दिया।
विनय कटियार भी उन नेताओं में एक हैं, जिनपर मुकदमा चलाया जा रहा है। एक तरफ तो वह सीबीआई को छुट्टा सांड़ कह रहे हैं और दूसरी ओर लालू यादव की उस प्रतिक्रिया के प्रति सकारात्मक रुख अपनाते हैं, जिसमें बिहार के नेता ने कहा था कि आडवाणी और जोशी को राष्ट्रपति की दौड़ से बाहर रखने के लिए उन पर फिर से मुकदमा शुरू किया जा रहा है। जाहिर है, भारतीय जनता पार्टी में भी ऐसे लोग हैं, जो लालू यादव के विचार से सहमत हैं।

एक दूसरे प्रकार का विश्लेषण भी पेश किया जा रहा है और उसका संबंध 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से है। सुप्रीम कोर्ट ने दो साल के अंदर सुनवाई पूरी करने को कहा है। यानी दो साल के बाद जब इस मसले पर फैसला आएगा, तो उस समय लोकसभा चुनाव का प्रचार अभियान अपने उत्कर्ष पर है। उसी बीच फैसला आने पर बाबरी मस्जिद और राममंदिर विवाद एक बार फिर से हरा हो जाएगा और उसके कारण माहौल सांप्रदायिक हो जाएगा, जिसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को होगा।

पता नहीं इस आकलन में किनती सच्चाई है, लेकिन इतना तो तय है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को अब राम मंदिर का मुद्दा वोट नहीं दिलवाता। न तो पिछले विधानसभा चुनाव में और न ही 2014 के लोकसभा चुनाव में राम मंदिर कोई मुद्दा था, फिर भी भारतीय जनता पार्टी को भारी जीत हुई थी। जीत का कारण सीमित तौर पर सांप्रदायिकता हो सकती है, लेकिन वह सांप्रदायिकता राममंदिर बाबरी मस्जिद जनित विवाद के कारण नहीं थी। और यह भी सच है कि ओबीसी द्वारा भारी पैमाने पर भाजपा को दिए गए मतों के कारण ही भाजपा जीती थी। ओबीसी के वोट भाजपा को किसी सांप्रदायिकता के कारण नहीं मिले थे, बल्कि मुलायम- अखिलेश और मायावती के खिलाफ उनके मन में पैदा हुए आक्रोश के कारण मिले थे।

जाहिर है, इस मुकदमे से भारतीय जनता पार्टी को 2019 में कोई लाभ होगा, इसे दावे से नहीं कहा जा सकता। इस मुकदमे के राजनैतिक निहितार्थ को अपनी जगह छोड़ दें, तो पाते हैं कि यह फैसला देश की न्यायायिक व्यवस्था पर एक गंभीर टिप्पणी है। सुप्रीम कोर्ट ने खुद फैसला देते हुए इसमें विलंब पर रोष जाहिर किया है। एक अंग्रेजी कहावत है कि न्याय में विलंब का मतलब है, न्याय हो नहीं पाना। और जब अगले दो साल के बाद बाबरी विध्वंस पर फैसला आएगा, तो उस समय विघ्वंस के 26 साल बीत चुके होंगे।

सवाल उठता है कि 26 साल बाद आए फैसले का क्या महत्व होगा? इस बीच पूरी एक पीढ़ी गुजर चुकी होगी और दूसरी पीढ़ी गुजरने की राह पर होगी। यदि यह मान भी लिया जाय कि आडवाणी, जोशी और उमा भारती दोषी करार दी जाती हैं, तो इस बीच सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठकर उन्होंने जो निर्णय किए हैं, उनका क्या होगा? गौरतलब हो कि लालकृष्ण आडवाणी लोकसभा के सदस्य होने के साथ साथ इस बीच उपप्रधानमंत्री के पद पर रह चुके हैं। वे देश के गृहमंत्री थे। मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे। उमा भारती तो मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं। अटल बिहारी सरकार में भी वे मंत्री थीं और इस समय भी वे मोदी सरकार में मंत्री हैं।

विलंबित न्याय हमारे देश की आज सबसे बड़ी समस्या है। इसके कारण भ्रष्टाचार को ताकत मिलती है और अपराधीकरण को भी बढ़ावा मिलता है। विलंबित न्याय एक तरह का न्यायिक आतंकवाद है, जिससे देश की जनता आतंकित रहती है। इसके कारण कई लोग अपराध का शिकार हो जाने के बाद भी अदालत की शरण नहीं ले पाते, क्योंकि उन्हें उससे न्याय की उम्मीद ही नहीं होती और जो अदालत जाते हैं, तो एक बार अपराध से पिसने के बाद न्यायिक प्रक्रिया से पिसते रहते हैं।

बाबरी विध्वंस से जुड़ा यह मामला कोई अकेला मामला नहीं है, जो अदालतों में दशकों तक घसीटा जाता है। यह एक नमूना है और ऐसे लाखों मामले हैं, जो लंबे अरसे तक अदालतों में सड़ रहे हैं। आज इंटरनेट के युग में जब दुनिया के एक कोने में बैठा व्यक्ति दूसरे कोने में बैठे व्यक्ति से पलक झपकते ही संवाद कर सकता है और दस्तावेजों का आदान प्रदान भी बिना समय गंवाए कर सकता है, वैसे युग में न्याय मिलने में दशकों का समय लगना उनके मानवाधिकारों का हनन है, जिनके साथ अपराध हुआ है अथवा जिन पर अपराध का झूठा आरोप लगाकर मुकदमे में फंसा दिया गया है।

पर आश्चर्य की बात है कि हमारे देश में इस न्यायिक अव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठ नहीं रही है अथवा आवाज जो उठ रही है, वह इतनी कमजोर है कि किसी को सुनाई ही नहीं देती। (संवाद)