अब वह भी विपक्षी एकता के प्रयासो में शामिल हो गई हैं। पिछले दिनों सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं के लिए लंच का आयोजन किया था। मायावती ने भी हिस्सा लिया था। राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के साझा उम्मीदवार को लेकर वह लंच आयोजित किया गया था।

मायावती उस लंच समारोह में विपक्षी नेताओं के साथ घुलने मिलने का प्रयास करती हुई दिखाई दे रही थीं। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने धुर विरोधी अखिलेश यादव के साथ भी बैठक की।
इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादव की मध्यस्थता के बाद मायावती और अखिलेश यादव एक दूसरे के साथ सहयोग करने को तैयार हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों को कुल 325 सीटें मिलीं।

लेकिन यदि कांग्रेस, सपा और बसपा के मतों की संख्या का जोड़ दिया जाय, तो भाजपा और उसके सहयोगियों की कुल 90 सीटें ही निकलती दिखाई देती हैं। लेकिन चुनाव और राजनीति में सिर्फ अंकगणित काम नहीं करता।

लालू ने मायावती से वायदा किया है कि वे उन्हें राज्यसभा में फिर उन्हें भेजेंगे। गौरतलब हो कि मायावती की पार्टी को उत्तर प्रदेश में सिर्फ 19 सीटें मिली हैं, जबकि राज्यसभा में प्रवेश के लिए उन्हें 36 मतों की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस की 7 सीटों को मिलाकर भी उनके पास 10 वोट की कमी रह जाती है।

यदि अखिलेश मायावती को समाजवादी पार्टी के 10 विधायकों का वोट दिला दें, तो मायावती 2018 में फिर राज्यसभा की सदस्यता पा सकती हैं। गौरतलब हो कि समाजवादी पार्टी के इस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा में 47 विधायक हैं। सपा का एक नेता 36 वोट पाकर राज्यसभा में जा सकता है और उसके पास फिर भी 11 विधायक शेष रहेंगे। यदि इनमें से 10 भी मायावती को वोट करे, तो वह राज्यसभा का चुनाव जीत सकती हैं।

गौरतलब हो कि मायावती की राज्यसभा सदस्यता का वर्तमान कार्यकाल 2018 में समाप्त हो रहा है और आगे भी राज्यसभा का सदस्य बने रहने के लिए उन्हें फिर चुनाव जीतना होगा।

लालू यादव अखिलेश और माया में समझौता करवा कर सपा के मतों की सहायता से बसपा अध्यक्ष को एक बार फिर राज्यसभा भिजवा सकते हैं। वैकल्पिक तौर पर वे बिहार से अपने राजद विधायाकों की संख्या की ताकत से भी मायावती को राज्य सभा भेज सकते हैं।

मायावती ने अपने भाई आनंद को पार्टी का एकमात्र उपाध्यक्ष नियुक्त किया है। ऐसा करके उन्होंने संकेत दे दिया है कि उनका भाई ही उनका राजनैतिक उत्तराधिकारी होगा। उन्होंने बसपा के प्रवक्ताओं की नियुक्तियां भी की हैं। अब तक बसपा की एकमात्र आधिकारिक प्रवक्ता मायावती खुद हुआ करती थीं। उनको यह पसंद नहीं था कि बसपा का कोई अन्य नेता मीडिया को संबोधित करे।

मायावती ने नसीमुद्दी सिद्दकी को भी पार्टी से यह कहते हुए निकाल दिया है कि उन्होंने टिकट बांटने में धांधली की। जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें इसलिए निकाला गया, क्योंकि वे मुसलमानों के वोट बसपा को नहीं दिला सके।

बसपा ने मुसलमानों को 100 से भी ज्यादा टिकट दिए थे। मुस्लिमों के टिकट वितरण में नसीमुद्दीन की भी भूमिका थी, हालांकि मुख्य भूमिका खुद मायावती की ही थी। माया को लगता था कि दलित मुस्लिम समीकरण उनको जीत दिलवा देगा, लेकिन वैसा हुआ नहीं। मुसलमानों के धार्मिक नेता उनसे बसपा के लिए वोट करने की मांग करते रहे, लेकिन मुसलमानों ने उनकी नहीं सुनी।

सिद्दकी ने भी अनेक आॅडियो टेप जारी कर मायावती को राजनैतिक रूप से नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। मायावती पहले से टिकट बेचने के लिए बदनाम रही हैं। सिद्दकी के हमले से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए मायावती ने कुछ उन मुस्लिम नेताओं को पार्टी में शामिल कर लिया है, जिन्हें वे निकाल चुकी थीं।

मायावती अपने अस्तित्व संकट से जूझ ही रही थीं कि इधर सहारनपुर के जातीय दंगे के बाद भीम सेना उभर कर सामने आ गई है। उसके नेता चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण मीडिया की सुर्खियां बटोर रहे हैं। इसके कारण मायावती की बेचैनी बढ़ गई है, क्योंकि दलित युवकों को रावण जैसा आक्रामक नेता ज्यादा पसंद है और उधर मायावती अब अपनी पुरानी आक्रामकता खो चुकी हैं।(संवाद)