मोदी ने तेज विकास दर के नारे के साथ ही राष्ट्ीय राजनीति में कदम रखा था और देखत-देखते भारत की राजनीति पर छा गए। इसलिए उनकी कहानी ऐसे घुड़सवार की है जो पहले से ही बनी सड़क पर तेज गति दौड़ता गया क्यंेांकि उदारीकरण की अर्थव्यवस्था की सड़क कांगे्रस ने बनाई थी। मनमोहन-सोनिया के नेतृत्व वाले शासन की विकास की कथा को मोदी ने बिना किसी दिक्कत के अपने नाम कर लिया। वह यह कहकर सत्ता में आ गए कि भ्रष्ट कांग्रेसी विकास की कहानी को आगे नहीं बढ़ा सकते। लेकिन आज जब हम मोदी की कहानी को देखते हैं तो लगता है कि विकास की इस कहानी को आगे बढ़ाना उनके वश में नहीं रहा और उन्होंने कहानी को हिंदुत्व से जोड़ दिया है। मोदी ने भाजपा के घोषणा पत्र के जरिए जो वायदे किए थे वह उसे पूरा नहीं कर पाए और आज कहानी के संवाद बदले हुए हैं।
प्रधानमंत्री मोदी का शायद ही कोई ऐसा भाषण होगा जिसमें गरीबों की तरक्की की बात नहीं आती हो। लेकिन गौर से देखने पर पता चलता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य या सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों पर सरकार ने या तो खर्च घटा दिया है या वह पहले की तरह है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ एक प्रतिशत स्वास्थ्य और तीन प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो रहा है। मोदी सरकार ने शिक्षा के निजीकरण को इस तेजी से बढ़ावा दिया है कि आज देश में 33 प्रतिशत युनिवर्सिटियां निजी क्षेत्र में हैं। ये विश्वविधालय लाखों की फीस वसूलते हैं। सरकारी अनुदान कम प़ड़ने की वजह से आई आई टी या आईआईएम जैसे संस्थान में भी अब छात्रों को लाखों का खर्च उठाना पड़ रहा है। अगर छात्र समान हैसियत वाला है तो वह इसके लिए बैंक से कर्ज उठाता है और पढ़ाई के दौरान इसी विंता में रहता है कि ऐसी नौकरी मिलें कि कर्ज लौटा सके और एक सुविधा वाली जिंदगी जी सके।
पिछले तीन सालों में प्रधानमंत्री मोदी ने विकास के इस नारे के साथ क्या किया उसे जानना ज्यादा मुश्किल नहीं है। हाल ही में बेरोजगारी को लेकर दो महत्वपूर्ण रिर्पोट आई हैं। एक है भारत सरकार के श्रम मंत्रालय की और दूसरी है संयुक्त राष्ट् संघ की । दोनों ही रिर्पोट ने बताया है कि देश में रोजगार की हालत बहुत खराब है। लेबर ब्यूरो की रिर्पोट बताती है कि 2015 में सिर्फ एक लाख 55 हजार और 2016 में 2 लाख 31 हजार नौकरियां पैदा हुई। यह बताना जरूरी है कि देश में हर साल एक करोड़ 30 लाख लोग नौकरी के लिए बाजार पहंुच जाते हैं। लेकिन हालत यह है कि 2012 के बाद से किसी भी साल 5 लाख से ज्यादा नौकरियों पैदा नहीं की जा सकी। कहा जाता है कि यह विकास नौकरी विहीन (जाॅब लेस) है। लेकिन असलियत यह है कि यह नौकरियां खाने वाला विकास है। लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट से पता चलता है कि 2015 में जवाहरात और गहना बनाने वालों में लगे 19,000 लोगों ने रोजगार गंवाया और हैंडलूम के 11000 लोग बेरोजगार हो गए। रोजगार गंवाने वालों में आटोमोबादल,ट्रांसपोर्ट और कपड़ा उद्योग के लोग भी हैं।
देश में रोजगार पैदा करने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र आई टी उद्योग है। इसमें 2015-16 में सबसे ज्यादा, 76000 नौकरियां आईं। इसके बाद कपड़ा तथा धातु उद्योग रहा। लेकिन अब इन क्षेत्रों में भी रोजगार कम होने शुरू हो गए हैं। विप्रो, इंफोसिस, कोग्निजेंट आदि बड़ी आई टी कंपनियों ने छंटनी शुरू कर दी है और इस साल इन क्षेत्रों में हजारों लोगों ने रोजगार गंवा दिए हैं। अगले दो साल में पौने दो लाख लोगों के रोजगार गंवाने की संभावना है। संयुक्त राष्ट् संघ की रिपोर्ट ने कहा है कि 2017 और 2018 में भारत में बेरोजगारी और असमानता दोनों बढ़ेगी।
असमानता की बात आई है तो हमें यह जान लेना होगा कि मोदी के राज में अमीरों की चांदी रही और देश के एक प्रतिशत अमीरों के पास कई खरब की संपति है। 2014 में देश की 53 प्रतिशत संपति पर वे कब्जा किए बैठे थे। पिछले तीन सालों में उन्होंने देश की 58 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा कर लिया है। विकास का घोड़ दोड़ा कर उनके दरवाजे संपत्ति पंहुचा गया है।
असमानता के बारे में आक्सफाम नामक अंतरराष्ट्ीय एनजीओ की इस रिपोर्ट का उल्लेख करना लाजिमी होगा कि भारत की प्राईवेट कंपनियों पर बैठा सबसे बड़ा अधिकारी-सीईओ, का वेतन उसके मातहत काम करने वाले कर्मचारी से 416 गुना ज्यादा है। असमानता की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में सबसे कम पगार वालेे रोजगारों में 60 प्रतिशत महिलाओं के पास है। समान काम के लिए महिलाओं को कम वेतन मिलता है। मोदी के राज में असमानता बढ़ी है।
रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और खेती को ऐसी हालत के बावजूद मोदी के तीन साल इतने चमकदार क्यों बताया जा रहा है और मीडिया उन्हें आजादी के बाद का महानायक साबित करने पर क्यांें तुला है? यह कहानी आम आदमी को किए गए वाएदे की कथा से पूरी तरह भिन्न है। इस पक्ष को समझने के लिए हमें रोजगार, असमानता और आम आदमी को दी जाने वाली सहूलियतों की बात भूलनी पड़ेगी। मोदी ने वायदा किया था कि व्यापार-उद्योगों को वह हर सहूलियत देंगे और इसमें आने वाली बाधाओं को वह दूर कर देंगे इसे उन्होंने पूरे मन से किया है। अब देश का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें विदेशी पूंजी के आने में कोई बाधा है। प्रतिरक्षा, रेल, और मीडिया का क्षेत्र ऐसा था जिसमें विदेशी पंूजी को अनुमति देने में कांग्रेस सरकार भी हिचकिचा रही थी। मोदी ने ये क्षेत्र भी विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिए हैं। वह इसे ‘इज डूइंग बिजनेस (बिना झंझट व्यापार करो) कहते हैं। योजना आयोग नाम की संस्था इस काम में दिक्कत डालती थी। वह बताती रहती थी कि गरीबी कहां पुहुच गई है और बच्चे कुपोषण से क्यों मर रहे हैं। मोदी ने एक झटके में उससे निजात दिला दी।
आज हमारी विदेश-नीति एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां बांग्लादेश को छोड़ कर कोई भी पड़ोसी हमारे साथ नहीं है। अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते कैसे हैं । इसका अंदाजा उसकी वीजा नीतियों से हो रहा है। मोदी विदेशों से काला धन तो नहीं लौटा पाए और न ही विजय माल्या या ललित मोदी को पकड़ कर देश ला पाएं, लेकिन सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय का उपयोग कर प्रतिदूंद्वी पार्टियों कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राजद आदि को डराने धमकाने में लगे हैं। भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए उन्होंने सख्त कानूनों और लोकपाल आदि का वायदा किया था। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए। (संवाद)
मोदी की छाया में भारत के तीन साल
आर्थिक विषमता और बेरोजगारी बढ़ी
अनिल सिन्हा - 2017-06-02 12:54
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश ने तीन साल गुजार दिए हैं। यह समय इतना तेजी से बीता कि पता ही न चला। एक तेज गति से चलती फिल्म के नायक की तरह मोदी ने देश को चलाया है। हालांकि गहराई से देखने पर लगता है कि जिस गंभीरता की उम्मीद उनसे लोगों ने की थी, वह उसके पास तक भी न पंहुच पाए। ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारा था और लोगों ने तेज विकास के लिए उन्हें चुना था। जाहिर है उनके कार्यकाल का आधा से अधिक समय पूरा हो जाने के बाद लोग जानना चाहेगें कि उनके शासन की दिशा क्या रही और नतीजे में देश के हाथ क्या आया। सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम पाते हैं कि मोदी ने इन तीन सालों में ंविपक्ष को दबाए रखने में पूरी सफलता प्राप्त की है और 2019 के चुनावों में उन्हें चुनौती देने वाली कोई बड़ी ताकत सामने नहीं है।