पर इस बार फिर घोटाले के मामले सामने आए। इस बार का टाॅपर भी घोटाले की संतान बनकर सामने आया। वह संगीत का विद्यार्थी था और उसमें उसे बहुत अच्छे अंक मिले थे, पर उसकी जानकारी टाॅपर वाली नहीं थी। एक बार फिर हल्ला हुआ और जांच में पाया गया कि अपनी उम्र 24 साल बताने वाला वह युवक 42 साल का था और वह एक बार पहले भी दसवीं और बारहवीं और शायद उससे आगे की परीक्षाएं भी पास कर चुका था। अपने उम्र छिपाकर उसने 25 साल बाद दुबारा दसवीं की परीक्षा दे डाली थी और अच्छे अंकों से पास कर गया था। फिर उसने 12 वीं की परीक्षा भी दे डाली और यहां तो वह टाॅप ही कर गया।

उसकी काॅपियांे को देखने से पता चलता है कि उसने सही जवाब लिखे थे और उसके मिले अंक भी आमतौर पर सही थे, लेकिन वह उम्र छिपाकर घोटाला कर रहा था। इसलिए वह भी अभी जेल में है। इस साल घोटाला टाॅप करवाने में हुआ अथवा नहीं, लेकिन बिहार के लाखों छात्रों के फेल होने में जरूर घोटाला दिख रहा है। उसका कारण यह है कि फेल होने वाले छात्रों में कुछ वैसे भी हैं, जिन्होंने आईआईटी की मेंस परीक्षा पास कर रखी थी। आईआईटी की मेंस परीक्षा पास करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह बोर्ड की परीक्षा में ही फेल हो जाए। उनके फेल होने से पूरी परीक्षा व्यवस्था और जांच प्रक्रिया पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं।

सवाल उठता है कि यदि परीक्षा और उसके नतीजों में घोटाले न हो तो फिर क्या हो? बिहार की पूरी शिक्षा व्यवस्था बर्बाद हो चुकी है। वहां विद्या के मंदिर ढह चुके हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति लगातार खराब हो रही है। पढ़ाने के लिए सही संख्या में शिक्षक नहीं हैं। पढ़ाई होती नहीं और इसलिए छात्र पढ़ने भी नहीं जाते। लेकिन उन्हें परीक्षा देना है और पास भी होना है। पास होने का एक तरीका अच्छी पढ़ाई करना होता है। लेकिन अन्य तरीको से भी पास किया जाता है। जब क्लास में पढ़ाई ही नहीं हो तो पास होने के अन्य तरीके आजमाये जाते हैं। और यह तरीका घोटाले के जंगल से गुजरता है।

यदि जांच और नतीजा निकालने मे घोटाला न हो और परीक्षा कड़ाई से हो तो बिहार के 25 फीसदी से ज्यादा बच्चे पास ही नहीं कर सकते, क्योंकि न तो उन्हें पढ़ाया जाता है और न ही वे पढ़ते हैं।

संगीत की पढ़ाई का ही मसला लें। जिन स्कूलों मे संगीत का पाठ्यक्रम है, उनमें से कुछ अपवादो को छोडकर किसी में भी संगीत की शिक्षा देने वाला कोई नहीं है। लेकिन छात्र है और परीक्षाएं भी होती हैं। अब यदि अच्छी तरह से परीक्षा हो और सही तरीके से मूल्यांकन किया जाए, तो शायद ही कोई पास हो, लेकिन पास होने के अन्य तरीकों का इस्तेमाल करके बच्चे न केवल पास होते हैं, बल्कि टाॅप भी कर जाते हैं। जाहिर है, पैसों और फेवर का खेल होता है और इस खेल में बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड से संबद्ध निजी विद्यालय, जहां शिक्षा की सुविधाएं सरकारी स्कूलों से भी बदतर है, बाजी मार लेते हैं।

पिछले साल टाॅपर घोटाले मे भी एक निजी विद्यालय ही शामिल था। असल में इन निजी विद्यालयों के मालिक सत्ता में ऊंची पहुंच वाले लोग होते हैं और अपने विद्यालय के छात्रों को ज्यादा अंक सुनिश्चित करते हैं और उसमें पैसों का भी बड़ा खेल होता है। जिन्हें ज्यादा नंबर चाहिए ( सवाल उठता है कि ज्यादा नंबर किसे नहीं चाहिए?) और जो पैसों का बंदोबस्त कर सकते हैं, वे उन विद्यालयों में नाम लिखाकर परीक्षा देते हैं और अच्छा अंक हासिल कर लेते हैं। ऐसे विद्यालयों की कीर्ति दूर दूर तक फैली रहती है। इसी कीर्ति के कारण इस साल का टाॅपर झारखंड का होते हुए भी बिहार आकर परीक्षा देता है। और टाॅप कर जाता है। पता नहीं, उसने कितने दिन उस स्कूल में क्लास किया होगा अथवा किया होगा भी या नहीं, क्योंकि एक 42 साल का व्यक्ति जब 17 और 18 साल के किशोरों के बीच बैठकर पढ़़ाई करेगा, तो सबसे अलग साफ दिखाई पड़ेगा।

कहने का मतलब कि जब शिक्षा व्यवस्था का ढांचा ही टूटा पड़ा हो, तो फिर परीक्षा व्यवस्था को आप कैसे सुधार लेंगे? बिहार मे शिक्षा व्यवस्था का पतन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले छात्र आंदोलन से ही शुरू हो गया था। उसके बाद उसमें न तो सुधार लाने की कोशिश हुई और न ही उसमें किसी तरह का सुधार लाया गया। हां, स्थिति दिनों दिन बद से बदतर होती गई। गिरावट के शुरुआती दिन फिर भी बर्दाश्त करने लायक थे, लेकिन 1980 के दशक के मध्य से ही बिहार के छात्र पढ़ाई के लिए बाहर भागने लगे, क्योंकि वहां दो साल की पढ़ाई पूरी करने में 4 साल लगते थे। फिर भी उस समय अच्छे शिक्षक थे और पढ़ाई हो जाती थी। समस्या सिर्फ परीक्षा के महीनों चलने की थी और नतीजे आने में साल गुजर जाने की थी।

लेकिन 1990 के दशक में तो शिक्षकों का स्तर भी काफी गिर गया। पुराने शिक्षक रिटायर्ड होते गए और नई बहालियों मे ऐसे शिक्षक आ धमके जिनके पास अपना भी कुछ ज्ञान नहीं था। शिक्षा के मंदिर उसी समय धराशाई होने लगे थे और अगले 10 साल में सबकुछ बर्बाद हो चुका था। 2005 में नीतीश की सरकार आई, लेकिन नीतीश ने भी शिक्षा में सुधार के लिए कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया। तब तक शिक्षा पर कोचिंग माफिया का भी कब्जा हो चुका था। परीक्षा और काॅपी की जांच में जुगाड़ बैठाने वालों का बोलबाला नीतीश की सरकार के दौरान और भी बढ़ गया और वह आज भी बदस्तूर जारी है। (संवाद)