2006 में ही स्वामीनाथन कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। उसमें अनेक बिंदुओं को रेखांकित किया गया था। बताया गया था कि भारत के कृषि संकट के कारण क्या क्या हैं। सिफारिश की गई थी कि कृषि को संविधान की समवर्ती सूची में शामिल किया जाय। फिलहाल यह राज्य का मामला है। इसके साथ यह भी कहा गया था कि राज्य स्तर पर भी किसान आयोगों का गठन किया जाना चाहिए। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी ने कहा था कि वह किसानों को बढ़ा हुआ समर्थन मूल्य देने की स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करेगी।

लेकिन अभी तक वह वायदा पूरा नहीं किया जा सका है। किसानों की स्थिति कितनी खराब है यह मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के किसान आंदोलनों से जाहिर होता है। दिल्ली के जंतर मंतर में तो तमिलनाडु के किसानों ने आत्महत्या करने वाले किसानों की खोपड़ियों के साथ प्रदर्शन किया।

आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। सबसे ज्यादा आत्महत्याओं की खबरें महाराष्ट्र ओडिसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ से आ रही हैं। एक अनुमान के अनुसा प्रत्येक तीस मिनट में एक किसान भारत में आत्महत्या कर रहा है। 5 लाख से भी ज्यादा किसान 1995 से अबतक आत्महत्याएं कर चुके है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि जिन किसानों ने आत्महत्याएं की उनमें से 80 फीसदी ने कर्ज ले रखे थे। 2014 में 5650 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं और यह आंकड़ा 2015 में बढ़कर 8000 हो गई। अकेले महाराष्ट्र में 3030 लोगों ने अपनी जान ली।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी किसानों की समस्या पर चिंता जाहिर की। उसने कहा कि किसानों की समस्या सर्वोपरि समस्या है। लगता है कि सरकार ने गलत दिशा पकड़ रखी है। किसान बैंकों से लोन लेते हैं और जब वे उसे वापस करने में विफल होते हैं, तो आत्महत्या कर लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि किसानों की समस्या का निदान उनके कर्ज की माफी नहीं है, बल्कि इसके लिए ऐसी योजनाएं लाने की है, जिनसे किसान कर्ज वापस करने लायक बन सकें।

सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले कई दशकों से किसानों की आत्महत्याएं जारी हैं और सरकार ने उसे रोकने के लिए अभी तक केाई भी ठोस कदम नहीं उठाया है।

यह साफ है कि खेती अब आकर्षक पेशा नहीं रही और किसान दूसरे क्षेत्रों में जाने की कोशिश कर रहे हैं। 2000 किसान प्रतिदिन यह पेशा छोड़ रहे हैं और उनमें से अधिकांश खेतिहर मजदूर के रूप में परिवत्र्तित हो रहे हैं। सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि 75 फीसदी किसान परिवारों की आय 5000 रुपये मासिक से कम है और सिर्फ 10 फीसदी किसान परिवारो की आय 10 हजार रूपये प्रति महीने से ज्यादा है।

किसानों की समस्या हल करनें में राजनीति भी कम नहीं होती है। राजनीति के लिए किसानों की कर्जमाफी एक बहुत बड़ा हथकंडा है, जो चुनाव जीतने के काम आता है। 1989 में वीपी सिंह की सरकार किसानों के कर्ज माफ करने के वायदे के साथ सत्ता में आई थी और उसने वैसा कर भी दिया। यूपीए सरकार ने 2008 में किसानों के खरबों रुपये के कर्ज माफ कर दिए थे और उसके कारण वह सरकार दुबारा सत्ता में आ गई।

2014 के चुनावों में तेलंगाना की टीआरएस और तमिलनाडु की तेलुगू देशम पार्टी किसानों की कर्जमाफी के वायदे के साथ सत्ता में आई थी। 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा ने किसानों के कर्ज करने का वायदा किया था और पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आ गई। (संवाद)