सच पूछा जाए तो डा के आर नारायणन ही एकमात्र राष्ट्रपति हुए जिन्होंने इस मामले मंे कोई कोताही नही बरती। उन्होंने बिहार में राबड़ी मंत्रिमंडल को बर्खास्त करने की सुंदर सिंह भंडारी की सिफारिश को नामंजूर कर दिया जिसमंें कानून-व्यवस्था की बुरी हालत के मद्देनजर वहंा राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी क्ंयोंकि उन्हें लगा कि भंडारी का निर्णय पक्षपातपूर्ण था। उन्होंने गुजरात दंगे को लेकर भी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा। इस तरह की जिम्मेदरी निभाने मेें विफल होने को लेकर विभिन्न राष्ट्रपतियों की आलोचना होती रही है। राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद तो ऐसे कमजोर साबित हुए कि उन्होंने आपातकाल लगाने की इंदिरा गांधी की सिफारिश पर यह देखे बगैर दस्तखत कर दिया था कि सिफारिश को केैबिनेट की मंजूरी नहीं थी। आपातकाल की घोषणा के दूसरे दिन यानि 26 जून, 1975 को इसे मंजूरी मिली। अहमद ने मौलिक अधिकारों और प्रेस की आजादी की रक्षा भी नहीं की। उन्होंने राज्यों, न्यायपालिका और सामान्य नागरिकों में से किसी को निरंकुश शासन की ज्यादतियों से नहंीं बचाया।

क्या संघ के मुखिया के रूप में राष्ट्रपति की हैसियत के अनुरूप उसके निर्वाचन की व्यवस्था है? यह देश का एकमात्र पद है जिसका निर्वाचक मंडल इतना बड़ा है और जिससे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही पूरा देश जुड़ा होता है। इसके निर्वाचन में संसद और राज्य विधान सभाओं दोनों की बराबर भूमिका होती है। अभी के निर्वाचक मंडल में राज्य विधान सभाओं के 4120 और संसद के 776 सदस्य वोट करेंगे। प्रत्येक संसद को 708 मत देने का हक है और विधान सभा के सदस्यों के वोट की संख्या राज्य के विधायकों की संख्या और वहंा की आबादी के आधार पर तय हुई है।

यही वजह है कि ऊतर प्रदेश के पास विधायकों और सांसदों के वोटों की संख्या सबसे ज्यादा है। उसके वोटों की संख्या 83 हजार है और संसद में सबसे ज्यादा संख्या में सासंद भेजने के कारण उसके पास वोटों की शक्ति ज्यादा है। लेकिन वोटों की संख्या के आबादी पर आधरित होने का मतलब यह नही समझना चाहिए कि अभी की आबादी के हिसाब से वोट करने की ताकत मिली हुई है। सन 1971 तक के चुनाव उस समय की जनगणना के आधार पर हुए क्योंकि हर जनगणना के बाद नया संसदीय और विधान सभ के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन हुआ और उसके हिसाब से विधान सभा तथा लोक सभा की सीटों की संख्या तथा राष्ट्पति पद के चुनाव के लिए दिए जाने वाले वोटों की गणना भी की गई। लेकिन 1976 में किए गए 42 वें संशोधन के बाद यह तय किया गया कि सन 2000 तक सारे चुनाव 1971 तक की जनगणना के आधार पर होंगे। तर्क यह दिया गया कि ज्यादा सीटें और राष्ट्पति चुनाव में ज्यादा ताकत के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रमों पर राज्या जोर नहीं देंगे। यह भी कहा गया है कि परिवार नियोजन कार्यक्रम के जरिए अपनी आबादी घटाने वाले राज्यों को उनके इस महत्वपूर्ण कार्य की सजा नहीं मिलनी चाहिए। यह तय किया गया कि निर्वाचक मंडल में यथास्थिति रखा जाए। 42 वें संशोधन के जरिए सन 2000 तक के लिए निर्वाचक मंडल को स्थिर रखा गया।

सन 2002 के संशोधन के जरिए क्षेत्रीय परिसीमन और अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या और निर्धारण की अनुमति दे दी गई लेकिन विधान सभा और लोकसभा की सीटों की राज्यवार संख्या स्थिर रखने का प्रावधान किया गया। क्षेत्रीय परिसीमन और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के प्रतिनिधियों की संख्या के निर्धारण का आधार 1991 और बाद में 2001 की जनगणना को बना दिया गया। लेकिन राष्ट्पति के चुनाव का आधार 1971 की जनगणना ही रहा और सन 2026 तक के लिए यही व्यवस्था रहेगी। यानि राज्यों के भीतर परिसीमन का प्रावधान तो हो गया लेकिन राष्ट्पति के निर्वाचन को इसके असर से अछूता रखा गया।

सवाल उठता है कि क्या ऐसी व्यवस्था उचित है? कई लोग तो इसे ज्यादा महत्व नहीं देते और 2002 के संशोधन से यह बात जाहिर भी हो जाती है कि राजकीय नेतृत्व ने इसे महत्वहीन समझा अन्यथा 1976 में की गई व्यवस्था को अवश्य बदला जाता। संविधान में आबादी के आधार पर राष्ट्पति के निर्वाचक मंडल के वोटों का निर्धारण का स्पष्ट मतलब है कि देश के हर व्यक्ति का अप्रत्यक्ष वोट सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति को चुनने में अपना योगदान करे। यह भारत के संघीय स्वरूप को ताकतवर करने के लिए की गया था। 1971 की जनगणना के आधार पर राष्ट्रपति को चुनने संविधान की इस भावना का उल्लंघन है। हमने इस यथास्थिति को इसलिए स्वीकार कर लिया है कि संघ को कमजोर करने की बाकी कोशिशें हमने स्वीकार कर रखी है।

राज्य सभा में राज्य के बाहर के व्यक्ति को चुनने को लेकर प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने इसी आधार पर आपत्ति की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलील खारिज कर दी। संघ को कमजोर करने की कोशिशों में से ही है सर्वोच्च पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को बिठाने की कोशिश जो सत्तारूढ पार्टी की हां में हां मिलाए। लेकिन देश के संघीय ढ़ंाचेे को कमजोर रखने में आगे रही राजनीतिक पाटियां निर्वाचक मंडल को सही रूप में रखने के लिए कोशिश क्यांे करें? परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर निर्वाचन संघीय आधार को कमजोर कर दिया गया है। अगर 1971 की जनगणना और 2011 की जनगणना को देखें तो पता चलता है कि चालीस साल तक निर्वाचक मंडल को स्थिर रखना उचित नहीं है क्ंयोंकि अबादी का स्वरूप बदला है और यह निर्वाचक मंडल के गठन मंे दिखाई देना चाहिए था। लोकतंत्र लोगों का प्रबंधन नहीं है, बल्कि यह हर व्यक्ति की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की व्यवस्था है। कई बार यह हमें ऐसी भागीदारी को, सांकेतिक रूप ही सही, सुनिश्चित करना होता है। (संवाद)