वैसे त्यागी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राजद के साथ उसका गठबंधन आगे भी बना रहेगा। लेकिन इस तरह की बयानबाजी को शायद ही कोई गंभीरता से लेगा। इसका कारण यह है कि महागठबंधन के दोनों दलों के बीच सबकुछ सामान्य नहीं है। मामला सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव का नहीं है। उसके पहले से ही दोनों के बीच बहुत तनाव चल रहा है और तनाव का कारण लालू यादव के परिवार के सदस्यों पर केन्द्र सरकार द्वारा की जा रही कार्रवाई है। उधर भाजपा के नेता सुशील मोदी लालू के परिवार के भ्रष्टाचार और बेनामी संपत्तियों का खुलासा दस्ताबेजी सबूतों के साथ कर रहे हैं और इधर केन्द्र सरकार लालू परिवार की कथित बेनामी संपत्तियों को जब्त कर रही है और बेनामी लेनदेन कानून के तहत मुकदमा दर्ज कर रही है।

लालू यादव को लगता है कि उनके परिवार के खिलाफ कार्रवाई में नीतीश कुमार का हाथ है। सुशील मोदी को जो दस्तावेज मिल रहे हैं, उसके पीछे भी जनता दल(यू) का ही हाथ बताया जा रहा है। नीतीश और लालू के नजदीकी लोगों का कहना है कि लालू यादव को शक ही नहीं, बल्कि पूरा यकीन भी है कि नीतीश कुमार ही केन्द्र सरकार में शामिल कुछ लोगों से अपनी नजदीकी का लाभ उठाते हुए केन्द्र से कार्रवाई कर रहे हैं और उनके इशारे पर ही सुशील कुमार मोदी को लालू परिवार की संपत्तियों से संबंधित दस्तावेज उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
जाहिर है, जिस मुसीबत में लालू पड़े हुए हैं, उसका एकमात्र निदान नीतीश सरकार को अपदस्थ कर अपनी पसंद की सरकार बनाना ही हो सकता है। लेकिन विधानसभा के वर्तमान गणित लालू को ऐसा करने की इजाजत नहीं देते। नीतीश के दल के पास 71 विधायक हैं और भाजपा के पास 53। दोनों को अलग थलग कर यदि सरकार बनाने की कोशिश की जाती है, तो इसका लिए जरूरी 122 विधायक नहीं उपलब्ध हो पाते। उलटे नीतीश भाजपा के 53 और अपने 71 सांसदों के बूते 124 विधायकों के साथ पूर्ण बहुमत में आ जाते हैं।

इसलिए लालू के पास एक विकल्प जनता दल(यू) के कुछ विधायकों को तोड़ना रह जाता है, लेकिन इसके सामने दल बदल विरोधी कानून आ जाता है। विधानसभा का अध्यक्ष नीतीश कुमार के खास व्यक्ति हैं, इसलिए उन्हें भी लालू पटा नहीं सकते और नीतीश के दल के जो भी विधायक पार्टी छोड़ेंगे, उनकी सदस्यता की समाप्ति तय है। इसलिए लालू यादव वैसे जद(यू) विधायकों की पहचान करने में लगे हुए थे, जो अपनी सदस्यता गंवाने को तैयार हो और जिन्हें बाद में कंपंसेट कर दिया जाएगा। चर्चा थी कि नीतीश के दल के कुछ यादव विधायक उनसे अलग हो सकते हैं और नीतीश सरकार को गिराकर लालू जीतनराम मांझी को एक बार फिर मुख्यमंत्री बना सकते हैं।

इस तरह की चर्चा चल ही रही थी कि राष्ट्रपति का चुनाव बीच में आ गया। इस अवसर का इस्तेमाल नीतीश ने अपनी ताकत के प्रदर्शन में लगाया। राजग के प्रत्याशी का समर्थन कर उन्होंने जाहिर कर दिया कि वे इतने कमजोर नहीं है, जितना लालू यादव उन्हे समझते हैं। संदेश स्पष्ट था कि उनकी सरकार महागठबंधन के बिना भी बच सकती है। ऐसा कर उन्होंने भाजपा नेताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काम भी किया है। यदि लालू नीतीश से समर्थन वापस ले लें और भाजपा समर्थन देने को तैयार न हो, तो फिर बिहार में एकमात्र विकल्प विधानसभा का मध्यावधि चुनाव ही हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी को उस तरह का चुनाव सूट भी करेगा, क्योंकि लालू और नीतीश के अलग अलग चुनाव लड़ने की स्थिति में भाजपा को बिहार का चुनाव जीतने से कोई रोक नहीं सकता।

यही कारण है कि नीतीश कुमार अब भाजपा नेताओं को पटाने के मिशन में लगे हुए हैं। राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन इसी मिशन का हिस्सा है। विमुद्रीकरण के निर्णय का समर्थन कर वह पहले भी नरेन्द्र मोदी की गुड बुक में आने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन माना जा रहा था कि उनकी यह कोशिश विफल हो चुकी है। अरुण जेटली जैसे कुछ भाजपा नेता तो नीतीश की पैरवी कर रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अभी भी नीतीश को संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। कोविंद को समर्थन देकर नीतीश कुमार उन दोनों भाजपा नेताओं का संदेह दूर करने की कोशिश कर रहे हैं।

उस कोशिश में वे कितना सफल हुए हैं, इसके बारे में दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन केसी त्यागी के बयान से पता चलता है कि नीतीश को अब कुछ उम्मीदें बंध गई है कि लालू के बिना भी उनकी सरकार भाजपा की सहायता से बच सकती है। लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार को जीवनदान देना पसंद करेगी? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि अब भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी और अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता शीर्ष पर नहीं हैं, जिनके साथ नीतीश मधुर संबंध बनाकर पूरी पार्टी को ही अपनी धौंस में रखते थे। अब पार्टी का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हाथ मे है, जो अपनी पार्टी के फायदे और नुकसान के मुताबिक निर्णय करते हैं न कि अपनी पसंद और नापसंद के अनुसार और वैसे भी नीतीश उनकी पसंदीदा लोगों में शामिल नहीं हैं। इसलिए नीतीश के लिए भी सबकुछ सहज साबित होने वाला नहीं है। (संवाद)